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भगवती आराधना
गुरुपदेशादधिगतदुःखनिवृत्त्युपायतया परित्यक्तेन्द्रियकषायोऽपि गार्हस्थ्यपरित्यागकाले पुनरपि तत्रापततीति ॥१३१२ ॥
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एतद् अनेकदृष्टान्तोपन्यासेन दर्शयति सूरिरुत्तर प्रबन्धेनवाहभए पलादो जूहं दट्ठूण वागुरापडिदं ।
सयमेव मओ वागुरमदीदि जह जूहतण्हाए ।। १३१३ ||
'वाहभएण' व्याघभयेन । 'पलादो मगो' कृतपलायनो मृगः । ' वागुरापडिडं जूहं दट्ठूण' वागुरापतितं स्वयूथं दृष्ट्वा । 'सयमेव वागुरमदीदि मगों' स्वयमेव वागुरां प्रविशति मृगः 1 'जह' यथा, कुतः । 'जूहतण्हाए' तृष्णया । ' एवं के वि गिहवासं मुच्चा' इत्यनया गाथया संबन्धः कार्यः ॥१३१३॥ पंजरमुको सउणो सुइरं आरामएस विहरंतो ।
सयमेव पुणो पंजरमदीदि जघ णीडतण्हाए || १३१४॥
'पंजरमुक्को सउणो' पञ्जरान्मुक्तः पक्षी । 'सुइरं आरामएसु विहरतो' आरामेषु स्वेच्छया विहरन् । 'सयमेव' स्वयमेव । ‘पुणों' पुनः । 'पंजरमदीदि' पञ्जरमुपैति । 'जह नोडतण्हाए' यथा नीडतृष्णया ॥१३१४॥ कलभो गएण पंकादुद्धरिदो दुत्तरादु बलिएण |
सयमेव पुणो पंके जलतण्हाए जह अदीदि ।। १३१५॥
'कलभो' गजपोतः महति कर्दमे पतितः । 'गएण पंकादुद्धरिदों गजेन परेण पङ्कादुद्धृतो । 'दुत्तरावु' दुस्तरात् पङ्कात् बलिष्वतिशयवता गजेन । 'सगमेव पुणो पंकं जह अदीदि' स्वयमेव कलभो यथा प मुपैति । 'जलतण्हाए' जलतृष्णया ॥१३१५॥
अग्गिपरिक्खित्तादो सउणो रुक्खादु उप्पडित्ताणं ।
सयमेव तं दुमं सो णीडणिमित्तं जघ अदीदि ॥ १३१६॥
परिणाम वाले होते हैं । भव्य जीव भी गुरुके उपदेशसे गृहस्थाश्रमका परित्याग करते समय दुःखकी निवृत्तिका उपाय जानकर इन्द्रिय और कषाय रूप परिणामोंका त्याग करता है किन्तु फिर भी वह उन्हींके चक्रमें पड़ जाता है || १३१२॥
आगे आचार्य अनेक दृष्टान्तोंके द्वारा इसीको दर्शाते हैं
गा०—जैसे व्याधके भयसे भागा हुआ हिरन अपने झुण्डको जालमें फँसा देखकर झुण्डके मोहसे स्वयं भी जालमें फँस जाता है वैसे ही कोई मुनि गृह त्यागनेके बाद स्वयं ही उसमें फँस
जाता है ॥१३१३||
गा० - जैसे पींजरेसे मुक्त हुआ पक्षी उद्यानोंमें स्वेच्छापूर्वक विहार करते हुए स्वयं ही अपने आवासके प्रेमवश पींजरेमें चला जाता है || १३१४ ||
गा०- — जैसे महती कीचड़में फँसा हाथीका बच्चा बलवान् हाथीके द्वारा निकाला गया । किन्तु पानीकी प्यासवश वह स्वयं ही कीचड़ में फँस जाता है || १३१५ ।।
गा० - जैसे पक्षी आग से घिरे वृक्षसे उड़कर स्वयं ही अपने घोंसलेके कारण उस वृक्षपर जा पहुँचता है || १३१६।।
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