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भगवती आराधना 'णिद्दा तमस्स सरिसो' तमस्सदृशमन्यत्तमो नास्ति मनुजानां इति ज्ञात्वा निद्रां ध्यानस्य विघ्नकारिणी जयेति ।।१४४२॥
कुण वा णिद्दामोक्खं शिद्दामोक्खस्स भणिदवेलाए ।
जह वा होइ समाही खवणकिलिंतस्स तह कुणह ॥१४४३।। 'कूण वा णिहामोक्ख' कुरु वा निद्रामोक्षं । निद्रामोक्षस्य कथितायां वेलायां रात्रस्तुतीये यामे इति यावत । यथा वा समाधिर्भवति भवत उपवासपरिश्रान्तस्य तथा वा निद्रामोक्षं कुरु ॥१४४३।। णिहत्तिगदं । उक्तार्थोपसंहारं वक्ष्यमाणं वाधिकार दर्शयत्युत्तरगाथा
एस उवावो कम्मासवदारणिरोहणो हवे सव्वो ।
पोराणयस्स कम्मस्स पुणो तवसा खओ होइ ॥१४४४।। 'एस उवाओ' कर्मणामास्रवद्वारनिरोधे उपायोऽयं सर्वोऽभिहितः । पौराणस्य कर्मणस्तपसा क्षयो भवति । संवरपूर्विका निर्जरा मुक्तये भवति न संवरहीनेति पूर्व संवरोपन्यासः ॥१४४४।।
अभंतरवाहिरगे तवम्मि सत्तिं सगं अगृहंतो।
उज्जमसु सुहे देहे अप्पडिबद्धो अणलसो तं ॥१४४५॥ 'अभंतरबाहिरगे' अभ्यन्तरे बाह्ये च तपस्युद्योगं कुरु स्वां शक्तिमगृहमानः । सुखे शरीरे चानासक्तिः अनालस्यः । न हि शरीरे सुखे वा आदरवांस्तत्प्रतिपक्षभूते तपसि प्रयतते । न' सालस्यः प्रवर्तते तपसि । तपसः प्रत्यहभावेन स्थितं सुखे शरीरे च प्रतिबद्धत्वमलसत्वमावेदितमनेन ।।१४४५।।
गा०—निद्रा रूपी अन्धकारके समान मनुष्योंका कोई दूसरा अन्धकार नहीं है। ऐसा जानकर हे क्षपक ! तुम ध्यानमें विघ्न करने वाली निद्राको जीतो ॥१४४२।।
गा०–अथवा यदि निद्राको नहीं जीत सकते हो तो आगममें निद्रा त्यागनेका जो समय रात्रिका तीसरा पहर कहा है उस समय निद्रा त्यागो । अथवा उपवाससे थके हुए आपकी समाधि जिस प्रकार हो उस प्रकार करो ।।१४४३॥
आगे उक्त कथनका उपसंहार और आगेका अधिकार कहते हैं
गा०-नवीन कर्मके आनेके द्वारको रोकनेका यह सब उपाय कहा है । पूर्व संचित कर्मोंका क्षय तपसे होता है । संवर पूर्वक निर्जरा मोक्षका कारण होती है, संवरके विना निर्जरा मोक्षका कारण नहीं है । इसलिये पहले संवरका कथन किया है ॥१४४४॥
गा०-टो०-हे क्षपक ! अपनी शक्तिको न छिपाकर अभ्यन्तर और बाह्य तपमें उद्योग करो । सुखमें और शरीर में आसक्त मत होओ और न आलस्य करो। जो शरीर और सुखमें आदरभाव रखता है वह उनके विरोधी तपमें प्रयत्न नहीं करता। तथा आलसी भी तपमें प्रवृत्ति नहीं करता। इससे सुख और शरीरमें आसक्ति तथा आलस्यको तपके लिये विघ्नकारी कहा है ॥१४४५।।
१. न चालस्यः-आ० । न चालस:-मु०, मूलारा० ।
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