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विजयोदया टोका
७६५ श्लाघ्यते, यौवनदर्पविकारादेव बुध्यमानोऽपि धर्मे न प्रयतते तदनित्यं मध्याह्नवत् । क्षिप्रतरं व्यतिवतिनि यौवने 'का यौवनकृतोत्तीर्णमदः स्याच्च मनस्विनाम् ॥१७१६॥
चंदो हीणो व पुणो वड्ढदि एदि य उदू अदीदो वि ।
णदु जोव्वणं णियत्तइ णदीजलमदछिदं चेव ।।१७१७।। ___'चंदो होणोव पुणो वड्ढदि' नित्यराहुमुखकुहरप्रवेशाद्धानिमुपगतोऽपि निशानाथः कृष्णपक्षे हीयते होनो भवति । 'पुणो वड्ढदि' पुनः शुक्लपक्षे वर्द्धते । प्रतिदिनोपचीयमानकालः । 'एदि य उद्दू अदीदोवि' हिमशिशिरवसन्तादयोऽतीता अपि ऋतवः पुनरायान्ति 'न तु जोवणं णियत्तेदि' नव यौबनं निवर्ततेऽतिक्रान्तम् तस्मिन्नेव भवे 'नदीजलमदच्छिदं चेव' नदीजलमतिक्रान्तमिव न पुनरेति । तद्वदिदं यौवनमित्यनेनानित्यततातिशयो यौवनस्य दर्शितः ॥१७१७॥
घावदि गिरिणदिसोदं व आउगं सव्वजीवलोगम्मि ।
सुकुमालदा वि हायदि लोगे पुव्वण्हछाही व ॥१७१८।। 'धावदि गिरिणदिसोदंव' धावति गिरिनदीप्रवाह इव । किं ? 'आउगं' आयुः । 'सव्वजीवलोगंहि' सर्वस्मिन् जीवलोके । 'सुकुमालवा वि हीयदि' सुकुमारतापि हीयते । 'पुन्वण्ह छाही व' पूर्वाह्लछाया इव । यथा यथोद्गच्छति तामरसबन्धुस्तथा तथोपसंहरति छायां शरीरादीनां ।।१७१८॥
अवरोहरुक्खछाही व अद्विदं वड्डदे जरा लोगे ।
रूवं पि णासइ लहुँ जलेव लिहिदल्लयं रूवं ॥१७१९।। 'अवरहरुक्खछाहीव' अपराह्मवृक्षच्छायेव । 'अट्ठिवं वड्ढदे' अस्तित्वं वर्द्धते । क्रियाविशेषणत्वान्नपुं सकता । 'जरा लोगे' लोके । सौरूप्यपल्लवदवानल शिखा, सौभाग्यप्रसूनकरकावृष्टिः, युवतिहरिणालीव्याघ्री,
स्थित है। मनुष्य 'मैं युवा हूं' इस प्रकारसे अपनी प्रशंसा करता है । यौवनके धमण्डसे ही जानते हुए भी धर्म में प्रयत्नशील नहीं होता। किन्तु वह यौवन मध्याह्नकालको तरह अनवस्थित है। इस प्रकार शीघ्र ही जानेवाले यौवनका मनस्वियोंको मद कैसा ? अर्थात् यौवनका मद करना उचित नहीं है ॥१७१६।।
गा० टी०-प्रतिदिन राहुके मुखरूपी बिल में प्रवेश करनेसे चन्द्रमा कृष्णपक्षमें घटता है और पूनः शक्लपक्षमें प्रतिदिन बढ़ता है। तथा हेमन्त, शिशिर, वसन्त आदि ऋतुएं भी जाकर पुनः लौटती हैं। किन्तु बीता हुआ यौवन उसी भवनमें नहीं लौटता। जैसे नदीमें गया जल फिर वापिस नहीं आता। उसी प्रकार यौवन भी जाकर वापिस नहीं आता। इससे यौवनको अत्यन्त अनित्यता दिखलाई है ॥१७१७॥
गा०–सर्व जीवलोकमें आयु पहाड़ी नदीके प्रवाहकी तरह दौड़ती है। सुकुमारता भी पूर्वाह्नकी छायाके समान दौड़ती है। जैसे-जैसे सूर्य ऊपर उठता है वैसे-वैसे शरीरादिको छाया घटती जाती है। उसी तरह ज्यों-ज्यों आयु बढ़ती है त्यों-त्यों सुकुमारता कम होती है ॥१७१८।।
गा०-टी०-जैसे अपराह्न काल में वृक्षोंकी छाया बढ़ती है वैसे ही लोकमें एक बार
१. को नृणां मदः स्याच्च -आ० ।
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