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भगवतो आराधनां कर्माणि शुभाशुभरूपाणि द्विविधानि, तत्र कस्य कर्मणः क आस्रव इत्यत्राह
अणुकंपासुधुवओगो वि य पुण्णस्स आसवदुवारं ।
तं विवरीदं आसवदारं पावस्स कम्मस्स ॥१८२८॥ 'अणुकंपा' अनुकम्पा । 'सुधुवओगों' शुद्धश्च प्रयोगः परिणामः, 'पुण्णस्स आसवदुवारं' पुद्गलानां पुण्यत्वपर्यायागमनमुखं सद्यं सम्यक्त्वं रतिहास्यपुवेदाः शुभे नामगोत्रे शुभं चायुः पुण्यं एतेभ्योन्यानि पापानि । अनुकम्पा त्रिप्रकारा। धर्मानुकम्पा मिश्रानुकम्पा सर्वानुकम्पा चेति । तत्र धर्मानुकम्पा नाम परित्यकासंयमेषु मानावमानसुखदुःखलाभालाभतृणसुवर्णादिषु समानचित्तेषु दान्तेन्द्रियान्तःकरणेषु 'जननीमिव मुक्तिमाश्रितेषु परिहृतोग्रकषायविषयेषु दिव्येषु भोगेषु दोषान्विचिन्त्य विरागतामुपगतेषु संसारमहासमुद्राद्भयेन निशास्वप्यल्पनिद्रेषु, अङ्गीकृतनिस्सङ्गत्वेषु, क्षमादिदशविधधर्मपरिणतेषु यानुकम्पा सा धर्मानुकम्पा, यया प्रयुक्तो जनो विवेकी तद्योग्यान्नपानावसथैषणादिकं संयमसाधनं यतिभ्यः प्रयच्छति । स्वामविनिगुह्य शक्ति उपसर्गदोषानपसारयति आज्ञाप्यतामिति सेवां करोति भ्रष्टमार्गाणां पन्थानमुपदर्शयति । तैः प्रसंयोगमवाप्य अहो सपुण्या वयमिति हृष्यति, सभासु तेषां गुणानुत्कीर्तयति', तान् गुरुमिव पश्यति । तेषां गुणानामाभीक्ष्णं स्मरति, महात्मभिः कदा नु मम समागम इति । तैः संयोगं समीप्सति, तदीयान् गुणान परैरभिवर्ण्यमानान्निशम्य तुष्यति । इत्थमनुकम्पापरः साधुगुणानुमननानुकारी भवति । त्रिधा च सन्तो बन्धमुपदिशन्ति, स्वयं कृतेः, कारणायाः, पुरैः कृतस्यानुमतेश्च । ततो महागुणराशिगतहर्षात् महान् पुण्यास्रवः ।
कर्म शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकारके हैं। किससे किस कर्मका आस्रव होता है यह कहते हैं
___ गा०-अनुकम्पा और शुद्ध उपयोग पुण्य कर्मके आस्रवके द्वार हैं। और अनुकम्पा तथा शुद्ध उपयोगसे विपरीत परिणाम पाप कर्मके आस्रवके द्वार हैं ॥१८२८।।।
टी०-अनुकम्पाके तीन भेद हैं-धर्मानुकम्पा, मिश्रानुकम्पा, सर्वानुकम्पा । जिन्होंने असंयमका त्याग कर दिया है, मान, अपमान, सुख-दुख, लाभ-अलाभे तथा तृण-सुवर्ण आदिमें जिनका समभाव है, इन्द्रिय और मनका जिन्होंने दमन किया है, जो माताके समान मुक्तिके आश्रित हैं, जिन्होंने उन कषाय विषयोंका परित्याग किया है, दिव्य भोगोंमें दोषोंका विचार करके विरागताको अपनाया है, संसाररूपी महासमुद्रके भयसे रात्रिमें भी जो अल्प निद्रा लेते हैं, जिन्होंने निःसंगताको स्वीकार किया है और जो उत्तम क्षमा आदि दस प्रकारके धर्मो में लीन हैं उनमें जो अनुकम्पा है उसे धर्मानुकम्पा कहते हैं। उस धर्मानुकम्पासे प्रेरित होकर विवेकी जन उन मुनियोंके योग्य अन्नपान, वसतिका आदि संयमके साधन प्रदान करते हैं। अपनी शक्तिको न छिपाकर उपसर्ग और दोषोंको दूर करते हैं। हमें आज्ञा कीजिये' इस प्रकार निवेदन करके सेवा करते हैं। जो मार्गसे भ्रष्ट हो जाते हैं उन्हें सन्मार्ग दिखलाते हैं। उन मुनियोंका संयोग प्राप्त होनेपर 'अहो हम बड़े पुण्यशाली हैं।' इस प्रकार विचार कर प्रसन्न होते हैं। सभाओंमें उनके गुणोंका बखान करते हैं। उनको गुरुके समान मानते हैं। उनके गुणोंका सदा स्मरण करते हैं कि कब उनका समागम हो। उनके संयोगकी अभिलाषा रखते हैं। दूसरे द्वारा उनके गुणोंकी प्रशंसा सुनकर सन्तुष्ट होते हैं । इस प्रकार अनुकम्पामें तत्पर साधु गुणोंकी अनुमोदना करनेवाला
१. मातरमिव -आ० मु० । २. ति स्वान्ते मु-आ० गु० ।
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