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विजयोदया टोका
८१३ छड्डिय रयणाणि जहा रयणद्दीवा हरेज्ज कट्ठाणि ।
माणुसभवे बि छड्डिय धम्म भोगे भिलसदि तहा ।।१८२५॥ 'छड्डिय रयणाणि जहा' रत्नानि त्यक्त्वा यथा, 'रयणद्दीवा हरेज्ज कहाणि' रत्नद्वीपात्काष्ठान्याहरति । 'तहा माणसभवे वि' मनष्यभवेऽपि. 'छडिडय धम्म' धर्म विहाय । 'भोगे भिलसदि' भोगान्वाञ्छति । एतदुक्तं भवति-अनेकसाररत्नास्पदं रत्नद्वीपं सुदुर्लभं प्राप्य मुधा लब्धान्यपि रत्नान्यनुपादाय असारमिन्धनं सुलभं सारबुद्धया यथा कश्चिदाहरति जडः । तथानेकगुणरत्नाकरं मनुष्यभवं दुरवापमवाप्य अतर्पकं पराधीनं अल्पकालिकं विषयसुखमभिलषति ॥१८२५॥
गंतूण णंदणवणं अमयं छंडिय विसं जह पियइ ।
माणुसमवे वि छड्डिय धम्मं भोगे भिलसदि तहा ।।१८२६।। 'गंतूण गंदणवणं' गत्वा नन्दनवनं । 'अमयं छड्डिय' अमृतं त्यक्त्वा । 'विसं जहा पियइ' विपं यथा पिवति कश्चित् । 'माणुसभवे वि छड्डिय' मनुष्यभवेऽपि त्यक्त्वा । 'धम्म' धर्म । 'भोगेभिलसदि तहा' भोगानाभिलषति तथा ।।१८२६॥ . . योगशब्दार्थमाचष्टे
पावपओगा मणवचिकाया कम्मासवं पकुव्वंति ।
भुज्जंतो दुभत्तं वणम्मि जह आसवं कुणइ ॥१८२७|| 'पावपओगा' पापं प्रयुज्यते प्रवर्त्यते एभिरिति पापप्रयोगाः । 'मणवचिकाया' मनोवाक्कायाः, 'कम्मासवं पकुव्वंति' कर्मत्वपर्यायागमं पुद्गलानां कुर्वन्ति । 'भुजंतो दुभत्तं' भुञ्जमानो दुराहारं । 'वर्णमि नह आसवं कुणदि' व्रणे यथा आस्रव स्रति पूतीनां करोति ।।१८२७।। .
गा०-टी०- जैसे कोई मनुष्य रत्नद्वीपमें जाकर रत्नोंको छोड़ लकड़ी वीनता है वैसे ही मनुष्यभवमें धर्मको छोड़ भोगोंकी अभिलाषा करता है। इसका अभिप्राय यह है कि जैसे कोई मूर्ख अनेक बहुमूल्य रत्नोंसे भरे तथा. अतिदुर्लभ रत्नद्वीपमें जाकर विना प्रयत्नके ही प्राप्त भी रत्नोंको ग्रहण न करके असार और सुलभ इंधनको ही सारभूत मानकर ग्रहण करता है, उसी प्रकार जो मनुष्यभव अनेक गुणरूपी रत्नोंकी खान है, जिसका मिलना वहुत कठिन है उसे प्राप्त करके भी अज्ञानी ऐसे विषयसुखकी अभिलाषा करता है जो तृप्ति प्रदान नहीं करता तथा पराधीन है और अल्प काल ही रहता है ।।१८२५।। - गा०-जैसे कोई पुरुष नन्दन वनमें जाकर भी अमृतको छोड़ विष पीता है। वैसे ही मनुष्यभवको पाकर भी मनुष्य धर्मको छोड़ भोगोंकी अभिलाषा करता है ।।१८२६।।
योगशब्दका अर्थ कहते हैं
गा०-जिनके द्वारा पापमें प्रवृत्ति की जाती है वे. मन, वचन, काय, पुद्गलोंको कर्मरूपसे परिणमाते हैं। जैसे अपथ्य सेवन करनेवाला अपने घावमें पीब पैदा करता है। अर्थात् जैसे अपथ्य सेवन करनेसे घावमें पीव आता है वैसे ही मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिसे कर्मो का आस्रव होता है ।।१८२७॥
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