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गुप्तीनां संवरतामाख्याति -
भगवती आराधना
समिदिदिढणावमारुहिय अप्पमत्तो भवोदधिं तरदि । छज्जीवणिकायवघादिपावमगरेहिं अच्छित्तो ॥ १८३५ ॥
'समदिविढनावमारुहिय' समितिसंज्ञितां दृढनावमारुह्य । 'अप्पमत्तो' अप्रमत्तो भवोदधि तरति षड्जीवनिकायवधादिपापमकरैरस्पृष्टः । एतेन समितेः संवरताख्याता ॥। १८३५ ॥
दारेव दारवालो हिदये सुप्पणिहिदा सदी जस्स । दोसा धंसंति ण तं पुरं सुगुत्तं जहा सत्तू ॥ १८३६ ॥
'दारेव वारवालों' द्वारे द्वारपाल इव । हृदये सम्यक्प्रणिहिता वस्तुतत्त्वानां स्मृतिर्यस्य तं दोषा ना भिभवन्ति पुरं सुगुप्तं शत्रव इव ॥ १८३६ ॥
जो हु सदिविप्पहूणो सो दोसरिऊण गेज्झओ होइ ।
अंगो व चरंतो 'अरीणमविदिज्जओ चेव ।। १८३७||
'जो खु सदिविप्पहूणो' यः स्मृतिहीनः । 'सो दोसरिऊण गेज्झओ होई' असौ दोषरिपुभिर्ग्राह्यो भवति । अरीणां मध्ये असहायोऽन्धः शत्रुग्राह्यो यथा ।। १८३७।।
अमु यंतो सम्मत्तं परीसहच मुक्करे उदीरंतो ।
व सदी मोत्तव्वा एत्थ दु आराधणा भणिया ।। १८३८ ||
'अमुयंतेण' अमुञ्चता । 'सम्मत्तं' रत्नत्रयं । 'परोस हसमोगरे' परीषहप्रकरे अभिभवत्यपि नैव स्मृतिमोक्तव्या । अत्राराधना कथिता । संवरः । ॥। १८३८ ॥
इससे गुप्तिको संवरका कारण कहा है
गा० - प्रमादरहित साधु समितिरूपी दृढ़ नावपर आरूढ़ होकर छह कायके जीवोंके घातसे होनेवाले पापरूपी मगरमच्छोंसे अछूता रहकर संसार समुद्रको पार करता है ।। १८३५ ।। इससे समितिको संवरका कारण कहा है
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गा० - जैसे सुरक्षित नगरका शत्रु ध्वंस नहीं कर सकते, उसी प्रकार द्वारपर खड़े द्वारपालकी तरह जिसके हृदयमें वस्तु तत्त्वोंकी स्मृति बनी रहती है, दोष उसका अनिष्ट नहीं कर सकते || १८३६||
गा०-- जैसे शत्रुओंके मध्य में असहाय अन्धा व्यक्ति शत्रुओंके द्वारा पकड़ा जाता है । वैसे ही जिसे वस्तु तत्त्वोंका सतत स्मरण नहीं रहता, वह दोषरूपी शत्रुओंसे पकड़ा जाता है ।।१८३७॥ गा०-प -परीषहोंके समूह से पीड़ित होते हुए भी साधुको रत्नत्रयको न छोड़ते हुए तत्त्वोंका स्मरण नहीं छोड़ना चाहिये । सदा तत्त्वका स्मरण करते रहना चाहिये । इसीको यहाँ आराधना कहा है ||१८३८||
१. अडवीमवि - अ० आ० ।
संवर अनुप्रेक्षाका कथन समाप्त हुआ ।
२. अमुयंते आ० ।
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