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भगवती आराधना .:. आदिशब्दपरिगृहीताः कुशीला उच्यन्ते-क्षेत्रं हिरण्यं 'चतुष्पदं च परिग्रहं ये गृह्णन्ति हरितकन्दफलभोजिनः कृतकारितानुमतपिण्डोपधिवसतिसेवापराः, स्त्रीकथारतयः, मैथुनसेवापरायणाः, विवेकास्रवादि अधिकरणोद्यताश्च कुशीलाः । धृष्टः प्रमत्तः विकृतवेषश्च कुशीलः । संसक्तो निरूप्यते-प्रियचारित्रे प्रियचारित्रः अप्रियचारित्रे दृष्टे अप्रियचारित्रः, नटवदनेकरूपग्राही संसक्तः । पञ्चेन्द्रियेषु प्रसक्तः त्रिविधगौरवप्रतिबद्धः, स्त्रीविपये संक्लेशसहितः, गृहस्थजनप्रियश्च संसक्तः । 'अवसण्णो' अवसन्नः 1 पार्श्वस्थसंसर्गात्स्वयमपि पार्श्वस्थः, कुशीलसंसर्गात्स्वयमपि कुशीलः, यः स्वच्छन्दसंपर्कात्स्वयमपि स्वच्छन्दवृत्तिः । यथाछन्दो निरूप्यते-उत्सूत्रमनुपदिष्टं स्वेच्छाविकल्पितं यो निरूपयति सोऽभिधीयते यथाछन्द इति । तद्यथा वर्षे पतति जलधारणमसंयमःक्षरकर्तरिकादिभिः केशापनयनप्रशंसनं आत्मविराधनान्यथा भवतीति भमिशय्या तणजे वसतः अवस्थितानामाबाधेति, उद्देशिकादिके 'जनेऽदोषः ग्राम सकलं पर्यटतो महती जीवनिकायविराधनेति, "शहामत्रेषु भोजनमदोष इति कथनं, पाणिपात्रिकस्य परिशातनदोषो भवतीति निरूपणा, संप्रति यथोक्तकारी न विद्यत इति च भाषणं एवमादिनिरूपणापरा: स्वच्छन्दा इत्युच्यन्ते ॥१९४४॥
हैं । गाथामें आये आदि शब्दसे ग्रहण किये कुशीलोंको कहते हैं—जो क्षेत्र, सुवर्ण, चौपाये आदि परिग्रहको स्वीकार करते हैं, हरे कंद, फल खाते हैं, कृत कारित अनुमोदनासे युक्त भोजन, उपधि वसतिकाका सेवन करते हैं, स्त्रीकथामें लीन रहते हैं, मैथुन सेवन करते हैं, आस्रवके अधिकरणोंमें लगे रहते हैं वे सब कुशील है। जो धृष्ट, प्रमादी और विकारयुक्त वेष धारण करता है वह . कुशील है।
__ अब ससंक्तका स्वरूप कहते हैं। चारित्र प्रेमियोंमें चारित्रप्रेमी, और चारित्रसे प्रेम न करनेवालोंमें चारित्रके अप्रेमी, इस तरह जो नटकी तरह अनेक रूप धारण करते हैं वे संसक्त मनि हैं । जो पञ्चेन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त होते हैं, ऋद्धिगारव, सातगारव और रसगारवमें लीन होते हैं, स्त्रियोंके विषयमें रागरूप परिणाम रखते हैं, और गृहस्थजनोंके प्रेमी होते हैं वे संसक्त मुनि हैं। वे पार्श्वस्थके संसर्गसे पार्श्वस्थ, कुशीलके संसर्गसे कुशील और स्वच्छन्दके सम्पर्कसे स्वयं भी स्वच्छन्द होते हैं।
___अव यथाच्छन्दका स्वरूप कहते है-जो बात आगममें नहीं कही है, उसे अपनी इच्छानुसार जो कहता है वह यथाच्छन्द है। जैसे वर्षामें जलधारण करना अर्थात् वृक्षके नीचे बैठकर ध्यान लगाना असंयम है। छरे कैंची आदिसे केश काटनेकी प्रशंसा करना और कहना कि केशलोच करनेसे आत्माको विराधना होती है। पृथ्वीपर सोनेसे तृणोंमें रहनेवाले जन्तुओंको बाधा होती है। उद्दिष्ट भोजनमें कोई दोष नहीं है क्योंकि भिक्षाके लिये पूरे ग्राममें भ्रमण करनेसे जीव निकायकी महती विराधना होती है । घरके पात्रोंमें भोजन करने में कोई दोष नहीं है ऐसा कहना। जो हाथमें भोजन करता है उसे परिशातन दोष लगता है ऐसा कहना। आजकल आगमानुसार आचरण करनेवाले नहीं हैं ऐसा कहना । इत्यादि कहने वाले मुनि स्वच्छन्द कहे जाते हैं ।।१९४४॥
३. अकरणो -अ०।
४. के भोजने मुः ।
१. च पुष्पं च-अ०। २. विवेकादि -आ० । ५. गृह मात्रासु भो-अ० आ० ।
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