Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

Previous | Next

Page 940
________________ विजयोदया टोका ८७३ दुविधं तं पि अणीहारिमं पगासं च अप्पगामं च । जणणादं च पगासं इदरं च जणेण अण्णादं ॥२०१०॥ 'दुविधं तं पि अणीहारिमं' द्विविधं तदपि अणीहारसंज्ञितं भक्तप्रत्याख्यानं प्रकाशरूपमप्रकाशरूपमिति । ज्ञातं प्रकाशरूपमितरदप्रकाशात्मकं ॥२०१०॥ खवयस्स चित्तसारं खित्तं कालं पडुच्च सजणं वा । अण्णम्मि य तारिसयम्मि कारणे अप्पगासं तु ।।२०११॥ 'खवगस्स चित्तसारं' क्षपकस्य वृद्धि, बलं, क्षेत्र, कालं, स्वजनं वा प्रतिपद्य अन्यस्मिन्वा तादृशे कारणे जाते अप्रकाशभक्तप्रत्याख्यानं, यदि क्षपकः क्षुदादिपरीषहासहः, वसतिर्वा अविविक्ता, कालो वा अतिरूक्षो, बंधवो वा यदि परित्यागविघ्न कुर्वन्ति न प्रकाशः कार्य: । णिरुद्धगदं ॥२०११॥ निरुद्धतरगं व्याचष्टे बालग्गिवग्घमहिसगयरिंछपडिणीय तेण मिच्छेहि । मुच्छाविसूचियादीहिं होज्ज सज्जो हु वावत्ती ।।२०१२।। 'वालग्गिवग्घमहिस' व्यालेनाग्निना, व्याघ्रण, महिषेण, गजेन, ऋक्षेण, शत्रुणा, स्तेनेन, म्लेच्छेन, मूर्च्छया, विसूचिकादिभिर्वा सद्यो व्यापत्तिर्भवेत् ॥२०१२।। जाव ण वाया क्खियदि बलं च विरियं च जाव कायम्मि । तिव्वाए वेदणाए जाव य चित्तं ण विक्खित्तं ॥२०१३।। 'जाव ण वाया खियदि' यावद्वाग्न विनश्यति बलं वीर्यं च यावदस्ति काये तीनया वेदनया यावच्चित्तं न व्याक्षिप्तं भवति तावत ॥२०१३।। गा०-टो०-वह अनिहार नामक भवतप्रत्याख्यान, जिसमें अपना संघ नहीं छोड़ा जाता है, और इसीलिये जिसे स्वगणस्थ भी कहा जाता है, दो प्रकार है--एक प्रकाशरूप और दूसरा अप्रकाशरूप । जो लोगोंके द्वारा ज्ञात होता है वह प्रकाशरूप है और जिसकी लोगोंको खबर नहीं होती, वह अप्रकाशरूप है ।।२०१०॥ गा०-टी०-क्षपकके मनोबल, क्षेत्र, काल अथवा स्वजन तथा इस प्रकारके अन्य कारणके होनेपर उसे दृष्टि में रखकर अप्रकट भक्तप्रत्याख्यान होता है। अर्थात् यदि क्षपक भूख प्यास आदिकी परीषह सहने में असमर्थ होता है, या, वसति एकान्तमें नहीं होती, या ग्रीष्म आदि ऋतु होती हैं, या परिवारके लोग विघ्न कर सकते हैं तो समाधिको प्रकट नहीं किया जाता ॥२०११।।. अब निरुद्ध समाधिकी विधि कहते हैं गा०-सर्प, आग, व्याघ्र, भंसा, हाथी, रीछ, शत्रु, चोर, म्लेच्छ, मूर्छा या विसूचिका आदि रोगसे तत्काल यदि मरण उपस्थित हो ॥२०१२॥ गा०-तो जब तक बोलो बन्द न हो, जब तक शरीरमें बल और शक्ति रहे, और जब तक तीव्र वेदनाके कारण चित्त व्याकुल न हो ॥२०१३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 938 939 940 941 942 943 944 945 946 947 948 949 950 951 952 953 954 955 956 957 958 959 960 961 962 963 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974 975 976 977 978 979 980 981 982 983 984 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994 995 996 997 998 999 1000 1001 1002 1003 1004 1005 1006 1007 1008 1009 1010 1011 1012 1013 1014 1015 1016 1017 1018 1019 1020