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भगवती आराधना
'व्वाभोगिय मग्गेण आसु गच्छंति तं समादाय । अदमणियत्तता य पिट्ठदो अणिभंता ॥। १९७५ ।।
२' पुव्वाभोगियमग्गेण' पूर्वालोकितेन मार्गेण आशु गच्छन्ति तत्समादाय अस्थितं अनिवर्तमानाः पृष्ठत आलोकनं मुक्त्वा ॥। १९७५ ॥
कुसमुट्ठि घेत्तूणय पुरदो एगेण होइ गंतव्वं । अदिअणियत्तंतेण पिट्ठदो लोयणं मुच्चा || १९७६।।
'कुसमुट्ठ घेत्तूण' कुशमुष्टि गृहीत्वा पुरस्तादेकेन गन्तव्यं, अस्थितं अनिवर्तमानेन अपृष्ठावलोकिना । १९७६ ॥
ते कुसमुट्ठिधाराए अव्वोच्छिण्णाए समणिपादाए । संथारो कादव्व सव्वत्थ समो सगिं तत्थ ।। १९७७ ।।
'ते कुसमुट्ठिधाराए' तेन पुरस्ताद्गतेन पूर्वनिरूपित निषोधिकास्थाने कुशमुष्टिधारया अव्युच्छिन्नया समनिपातया सर्वत्र समः सस्तरः कार्यः सकृत्तत्र ॥। १९७७॥
जत् ण होज्ज ताई चुण्णेहिं वि तत्थ केसरेहिं वा ॥ संघरिदव्वा लेहा सव्वत्थ समा अवुच्छिण्णा ।। १९७८ ।।
'जत्य ण होज्ज तणाई' यत्र न लभ्यन्ते कुशतृणानि तत्र चूर्णैर्वा केसरैर्वा संस्तरः कार्यः सर्वत्र समोऽव्युच्छिन्नः ॥९९७८॥
बाँध देना चाहिये जिससे वह उठ न सके । उसका सिर गाँवकी ओर रहना चाहिये || १९७४ ॥ गा०—उस शिविकाको लेकर पहले देखे हुए मार्गसे शीघ्र जाते हैं। न तो मार्ग में रुकते हैं और न पीछेकी ओर देखते हैं ।। १९७५ ।।
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गा०-- उसके आगे एक मुट्ठीमें कुश लेकर कोई मनुष्य जाना चाहिये । उसको भी न तो मार्ग में रुकना चाहिये और न पीछे देखना चाहिये || १९७६ ॥
गा०-- उस आगे गये पुरुषको पहलेसे देखे गये निषीधिकाके स्थानमें जाकर लगातार मुट्ठीसे एक समान कुश डालते हुए एक संस्तर बनाना चाहिये जो सर्वत्र सम हो || १९७७ ||
गा०- - जहाँ कुश न मिलते हों वहाँ प्रासुक चावल आदिके चूर्णसे अथवा प्रासुक केसरसे संस्तर बनाना चाहिये जो सर्वत्र सम हो ॥ १९७८॥
विशेषार्थ - गाथामें 'लेहा' पाठ है उसका अर्थ रेखा होता है । अतः आशाधर जीने उसका यह अर्थ किया है कि चूर्ण या केसरसे मस्तकसे लेकर पैर तक समान रेखा बनाना चाहिये । हमारी समझके अनुसार यह वह क्रिया है जिसे चौक पूरना कहते हैं । जो सर्वत्र शुभ क्रिया में किया जाता है || १९७८॥
१ - २. पुन्वालोगिय -आ० ।
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