Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 935
________________ भगवती आराधना ८६८ दिने । परगणस्थे कालं गते पठन्ति उपवासकरणमपि भाज्यं । अन्ये तु पठन्ति, 'ण ज्झाइ परगणत्थे' 'स स्वाध्यायः कर्तव्यः परगणस्थे मृते उपवासकरणीयं भाज्यमिति तेषां व्याख्या ।। १९८९ ॥ एवं डिट्ठवित्त पुणो वि तदियदिवसे उवेक्खति । संघस्स सुहविहारं तस्स गदी चेव णादुं जे ॥१९९० ॥ 'एवं पडिट्ठवित्ता' उपतेन क्रमेण क्षपकशरीरं प्रतिष्ठाप्य पुनस्तृतीये दिवसे गत्वा पश्यन्ति, संघस्य सुखविहारं तस्य च गतिं ज्ञातुं ॥। १९९० ॥ जदि दिवसे संचिट्ठदि तमणालद्धं च अक्खदं मडयं तदिवासाणि सुभिक्खं खेमसिवं तम्हि रज्जम्मि ।।१९९१ ॥ 'जदि दिवसे' यावन्तो दिवसाः न वृकादिभिरस्पृष्टमक्षतं च तन्मृतकं 'तदिवासाणि' तावन्ति वर्षाणि सुभिक्षं क्षेमं शिवं च तस्मिन् राज्ये ॥। १९९१ ॥ जं वा दिसमुवणीदं सरीरयं खगचदुप्पदगणेहिं । खेमं सिवं सुभिक्खं विहरिज्जो तद्दिसं संघो । १९९२ ।। 'जं वा दिसमुवणीदं' यां वा दिशमुपनीतं शरीरं पक्षिभिश्चतुष्पदेर्वा तां दिशं संघो विहरेत् क्षेमादिकं तत्र ज्ञात्वा ॥ १९९२ ॥ जदि तस्स उत्तमंगं दिस्सदि दंता च उवरिगिरिसिहरे । कम्ममलविप्पक्को सिद्धिं पत्तोत्ति णादव्वो ।।१९९३ ।। 'जदि तस्स उत्तमंग' यदि तस्य शिरो दृश्यते दन्ता वा गिरिशिखरस्योपरि कर्ममलविप्रमुक्तः सिद्धिमसौ प्राप्त इति ज्ञातव्यः ।।१९९३ ।। स्वाध्याय नहीं करना चाहिये । दूसरे संघके साधुका मरण होनेपर स्वाध्याय नहीं ही करना चाहिये । उपवास कर भी सकते हैं, नहीं भी करते । अन्य ऐसा पढ़ते हैं कि दूसरे संघके साधुका मरण होनेपर स्वाध्याय करना चाहिये । उपवास कर भी सकते हैं नहीं भी करते || १९८९|| Jain Education International गा०—उक्त प्रकारसे क्षपकका शरीर स्थापित करके तीसरे दिन जाकर देखते हैं कि संघका विहार सुखपूर्वक होगा या नहीं । तथा मृतककी गति अच्छी हुई या बुरी || १९९० ॥ गा०-जितने दिनों तक वह शव गीदड़ आदिसे सुरक्षित रहता है उतने वर्षों तक उस राज्य में सुभिक्ष और शान्ति रहती है ।। २९९१ ॥ गा०—अथवा पक्षी और पशुओंके द्वारा वह शरीर जिस दिशामें ले जाया गया हो क्षेमसुभिक्ष आदि जानकर उसी दिशा में संघको विहार करना चाहिये || १९९२|| गा० - यदि उसका सिर और दांत पर्वतके शिखरके ऊपर दिखाई दे तो वह मुक्तिको प्राप्त हुआ है, ऐसा जानना चाहिये || १९९३॥ १. न स्वा -आ० मु० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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