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भगवती आराधना
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दिने । परगणस्थे कालं गते पठन्ति उपवासकरणमपि भाज्यं । अन्ये तु पठन्ति, 'ण ज्झाइ परगणत्थे' 'स स्वाध्यायः कर्तव्यः परगणस्थे मृते उपवासकरणीयं भाज्यमिति तेषां व्याख्या ।। १९८९ ॥
एवं डिट्ठवित्त पुणो वि तदियदिवसे उवेक्खति । संघस्स सुहविहारं तस्स गदी चेव णादुं जे ॥१९९० ॥
'एवं पडिट्ठवित्ता' उपतेन क्रमेण क्षपकशरीरं प्रतिष्ठाप्य पुनस्तृतीये दिवसे गत्वा पश्यन्ति, संघस्य सुखविहारं तस्य च गतिं ज्ञातुं ॥। १९९० ॥
जदि दिवसे संचिट्ठदि तमणालद्धं च अक्खदं मडयं
तदिवासाणि सुभिक्खं खेमसिवं तम्हि रज्जम्मि ।।१९९१ ॥
'जदि दिवसे' यावन्तो दिवसाः न वृकादिभिरस्पृष्टमक्षतं च तन्मृतकं 'तदिवासाणि' तावन्ति वर्षाणि सुभिक्षं क्षेमं शिवं च तस्मिन् राज्ये ॥। १९९१ ॥
जं वा दिसमुवणीदं सरीरयं खगचदुप्पदगणेहिं ।
खेमं सिवं सुभिक्खं विहरिज्जो तद्दिसं संघो । १९९२ ।।
'जं वा दिसमुवणीदं' यां वा दिशमुपनीतं शरीरं पक्षिभिश्चतुष्पदेर्वा तां दिशं संघो विहरेत् क्षेमादिकं तत्र ज्ञात्वा ॥ १९९२ ॥
जदि तस्स उत्तमंगं दिस्सदि दंता च उवरिगिरिसिहरे । कम्ममलविप्पक्को सिद्धिं पत्तोत्ति णादव्वो ।।१९९३ ।।
'जदि तस्स उत्तमंग' यदि तस्य शिरो दृश्यते दन्ता वा गिरिशिखरस्योपरि कर्ममलविप्रमुक्तः सिद्धिमसौ प्राप्त इति ज्ञातव्यः ।।१९९३ ।।
स्वाध्याय नहीं करना चाहिये । दूसरे संघके साधुका मरण होनेपर स्वाध्याय नहीं ही करना चाहिये । उपवास कर भी सकते हैं, नहीं भी करते । अन्य ऐसा पढ़ते हैं कि दूसरे संघके साधुका मरण होनेपर स्वाध्याय करना चाहिये । उपवास कर भी सकते हैं नहीं भी करते || १९८९||
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गा०—उक्त प्रकारसे क्षपकका शरीर स्थापित करके तीसरे दिन जाकर देखते हैं कि संघका विहार सुखपूर्वक होगा या नहीं । तथा मृतककी गति अच्छी हुई या बुरी || १९९० ॥
गा०-जितने दिनों तक वह शव गीदड़ आदिसे सुरक्षित रहता है उतने वर्षों तक उस राज्य में सुभिक्ष और शान्ति रहती है ।। २९९१ ॥
गा०—अथवा पक्षी और पशुओंके द्वारा वह शरीर जिस दिशामें ले जाया गया हो क्षेमसुभिक्ष आदि जानकर उसी दिशा में संघको विहार करना चाहिये || १९९२||
गा० - यदि उसका सिर और दांत पर्वतके शिखरके ऊपर दिखाई दे तो वह मुक्तिको प्राप्त हुआ है, ऐसा जानना चाहिये || १९९३॥
१. न स्वा -आ० मु० ।
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