Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 925
________________ ८५८ भगवती आराधना गंथअणियत्ततण्हा बहुमोहा सवलसेवणासेवी । सद्दरसरूवगंधे फासेसु य मुच्छिदा 'घडिदा ॥१९४८॥ 'गंथाणियत्ततण्हा' अतृप्तपरिग्रहतृष्णा, 'बहुमोहा' अज्ञानबहुलाः। शवलसेवनापराः, शब्दादिषु विषयेषु मूर्छिताः तवघटिताः ॥१९४८॥ परलोगणिप्पिवासा इहलोगे चेव जे सुपडिबद्धा । सज्झायादीस् य जे अणुट्ठिदा संकिलिट्ठमदी ॥१९४९।। 'परलोयणिप्पिवासा' परलोकनिस्पृहाः, ऐहिकेष्वेव कार्येषु प्रतिबद्धाः, स्वाध्यायादिष्वनुद्यताः, संक्लिष्टमतयः ।।१९४९॥ सव्वेसु य मूलुचरगुणेसु तह ते सदा अइचरंता । ण लहंति खवोवसमं चरित्तमोहस्स कम्मस्स ॥१९५०॥ मूलोत्तरगुणेषु सदा सातिचारा न लभन्ते चारित्रमोहस्य क्षयोपशमं ॥१९५०॥ एवं मूढमदीया अवंतदोसा करेंति जे कालं । . ते देवदुब्भगत्तं मायामोसेण पावंति ॥१९५१।। ‘एवं मूढमदीया' एवं मूढबुद्धयो अनपास्तदोषा ये कालं कुर्वन्ति ते देवदुर्भगतां प्राप्नुवन्ति मायया ।।१९५१॥ किंमज्झ शिरुच्छाहा हवंति जे सव्वसंघकज्जेस । ते देवसमिदिवज्झा कप्पते हुंति सुरमिच्छा ।।१९५२॥ "कि मज्झणिरुच्छाहा' कि मह्यमिति ये सर्वसंघकार्येष्वनादृतास्ते देवसमितिबाह्याः कल्पानामन्ते सुरम्लेच्छा भवन्ति ॥१९५२॥ गा०-उनकी परिग्रहकी तृष्णा कभी तृप्त नहीं होती। अज्ञानमें डूबे रहते हैं । गृहस्थोंके आरम्भमें फँसे होते हैं, शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्शमें ममत्वभाव रखते हैं ।।१९४८।। गा०-परलोककी चिन्ता नहीं करते । इसी लोक सम्बन्धी कार्यों में लगे रहते हैं। स्वाध्याय आदिमें उद्यम नहीं करते । उनकी मति संक्लेशमय होती है ।।१९४९॥ गा०-सदा मूलगुणों और उत्तरगुणोंमें अतिचार लगाते हैं। इससे उनके चारित्रमोहका क्षयोपशम नहीं होता. ॥१९५०॥..: . गा. इस प्रकार दोषोंको दूर न करनेवाले वे मूढ़बुद्धि जब मरते हैं तो मायाचारके कारण अभागे देव होते हैं ॥१९५१॥ . .... गा०-वे मुनि अवस्थामें "मुझे इससे क्या' ऐसा मानकर संघके सब कार्यों में अनादर १. दा वडिया -आ० । २. तपः पतिताः आ० । आस्रवटि मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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