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भगवती आराधना गंथअणियत्ततण्हा बहुमोहा सवलसेवणासेवी ।
सद्दरसरूवगंधे फासेसु य मुच्छिदा 'घडिदा ॥१९४८॥ 'गंथाणियत्ततण्हा' अतृप्तपरिग्रहतृष्णा, 'बहुमोहा' अज्ञानबहुलाः। शवलसेवनापराः, शब्दादिषु विषयेषु मूर्छिताः तवघटिताः ॥१९४८॥
परलोगणिप्पिवासा इहलोगे चेव जे सुपडिबद्धा ।
सज्झायादीस् य जे अणुट्ठिदा संकिलिट्ठमदी ॥१९४९।। 'परलोयणिप्पिवासा' परलोकनिस्पृहाः, ऐहिकेष्वेव कार्येषु प्रतिबद्धाः, स्वाध्यायादिष्वनुद्यताः, संक्लिष्टमतयः ।।१९४९॥
सव्वेसु य मूलुचरगुणेसु तह ते सदा अइचरंता ।
ण लहंति खवोवसमं चरित्तमोहस्स कम्मस्स ॥१९५०॥ मूलोत्तरगुणेषु सदा सातिचारा न लभन्ते चारित्रमोहस्य क्षयोपशमं ॥१९५०॥
एवं मूढमदीया अवंतदोसा करेंति जे कालं । .
ते देवदुब्भगत्तं मायामोसेण पावंति ॥१९५१।। ‘एवं मूढमदीया' एवं मूढबुद्धयो अनपास्तदोषा ये कालं कुर्वन्ति ते देवदुर्भगतां प्राप्नुवन्ति मायया ।।१९५१॥
किंमज्झ शिरुच्छाहा हवंति जे सव्वसंघकज्जेस ।
ते देवसमिदिवज्झा कप्पते हुंति सुरमिच्छा ।।१९५२॥ "कि मज्झणिरुच्छाहा' कि मह्यमिति ये सर्वसंघकार्येष्वनादृतास्ते देवसमितिबाह्याः कल्पानामन्ते सुरम्लेच्छा भवन्ति ॥१९५२॥
गा०-उनकी परिग्रहकी तृष्णा कभी तृप्त नहीं होती। अज्ञानमें डूबे रहते हैं । गृहस्थोंके आरम्भमें फँसे होते हैं, शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्शमें ममत्वभाव रखते हैं ।।१९४८।।
गा०-परलोककी चिन्ता नहीं करते । इसी लोक सम्बन्धी कार्यों में लगे रहते हैं। स्वाध्याय आदिमें उद्यम नहीं करते । उनकी मति संक्लेशमय होती है ।।१९४९॥
गा०-सदा मूलगुणों और उत्तरगुणोंमें अतिचार लगाते हैं। इससे उनके चारित्रमोहका क्षयोपशम नहीं होता. ॥१९५०॥..:
. गा. इस प्रकार दोषोंको दूर न करनेवाले वे मूढ़बुद्धि जब मरते हैं तो मायाचारके कारण अभागे देव होते हैं ॥१९५१॥ . ....
गा०-वे मुनि अवस्थामें "मुझे इससे क्या' ऐसा मानकर संघके सब कार्यों में अनादर १. दा वडिया -आ० । २. तपः पतिताः आ० । आस्रवटि मु० ।
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