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विजयोदया टीका
८४३ इय झायंतो खवओ जइया परिहीणवायिओ होइ ।
आराधणाए तइया इमाणि लिंगाणि दंसेई ॥१८९७।। 'इय झायंतो खवओ' एवं ध्यानेन प्रवर्तमानः क्षपकः । यदा वक्तुमसमर्थो भवति तदा 'आराधणाए' रत्नत्रयपरिणतेरात्मनो लिङ्गानीमानि दर्शयति ॥१८९७॥
हुंकारंजलिभमुहंगुलीहिं अच्छीहिं वीरमुट्ठीहिं । ... सिरचालणेण य तहा सणं दावेदि सो खवओ ।।१८९८॥
"हकारंजलिभमुहंगुलीहि अच्छोहि' हुंकारेण वा अञ्जलिरचनया, भ्रूक्षेपेण, अङ्गुलिपञ्चकदर्शनेन उपदेष्टारं प्रति प्रसन्नतया(नया) दृष्ट्या किं समाहितचित्तोऽसीत्युक्ते शिरःकम्पनेन संज्ञां दर्शयति क्षपकः ॥१८९८॥
तो पडिचरया खवयस्स दिति आराधणाए उवओगं ।
जाणंति सुदरहस्सा कदसण्णा कायखवएण ।।१८९९।। 'तो पडिचरगा' ततः प्रतिचारकास्तस्य क्षपकस्याराधनायामुपयोगं जानन्ति श्रुतरहस्याः क्षपकेण कृतसंकेताः । झाणत्ति ॥१८९९॥ लेश्यायां संबन्धं करोति
इय समभावमुवगदो तह ज्झायंतो पसचद्माणं च । लेस्साहिं विसुझंतो गुणसेटिं सो समारुहदि ॥१९००॥ .
गा०-जैसे वैद्य पुरुषके रोगों की चिकित्सामें कुशल होता है वैसे ही ध्यान कषायरूपी रोग की चिकित्सा करने में कुशलवैद्य है ।।१८९५।।।
गा०-जैसे अन्त भूखको दूर करता है वैसे ही विषयोंकी भूख दूर करनेके लिये ध्यान अन्नके समान है। तथा जैसे प्यास लगने पर पानी उसे दूर करता है वैसे ही विषयरूपी प्यासके लिये ध्यान पानीके समान है ।।१८९६।।
गा-इस प्रकार ध्यानमें संलग्न क्षपक जब बोलने में असमर्थ होता है तब मैं रत्नत्रयमें संलग्न हूँ यह बात आगे कहे चिन्होंसे प्रकट करता है ।।१८९७॥
गा०-निर्यापकाचार्यके पूछनेपर कि तुम्हारा चित्त सावधान है, वह क्षपक हुंकारसे, हाथों की अंजुलि द्वारा, या भौं के संचालनसे अथवा पाँचों अंगुलियोंकी मुट्ठी बनाकर या सिर हिलाकर . प्रसन्न दृष्टिसे संकेत करता है ॥१८९८॥
गा.-तब क्षपकके द्वारा पहलेसे ही संकेत ग्रहण करने वाले और आगमक रहस्यको जानने वाले परिचारक मुनिगण यह जान लेते हैं कि क्षपकका उपयोग आराधनामें है ॥१८९९॥
विशेषार्थ-क्षपक पहले ही कह रखता है या परिचारक पहले ही क्षपकसे कह देते हैं कि बोलने में असमर्थ होनेपर मैं अपनी परिणतिको हुंकार आदि संकेतोंसे कह दूंगा ।।१८९९॥
आगे क्षपककी लेश्याविशद्धिका कथन करते हैंगा०-इस प्रकार समताभावको प्राप्त वह क्षपक प्रशस्त ध्यान ध्याता है और विशुद्ध
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