Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 912
________________ विजयोदया टोका ओ पम्मा सुक्का लेस्साओ तिणि विदु पसत्थाओ । पडिवज्जेइ य कमसो संवेगमणुत्तरं पत्तो ।। १९०३॥ 'तेओ पम्मा सुक्का' तेजःपद्मशुक्ललेश्याः प्रतिपद्यते परिपाटया ॥। १९०३ ॥ एसिं लेस्साणं विसोघणं पडि उवकमो इणमो । सव्वेसिं संगाणं विवज्जणं सव्वहा होइ ।। १९०४|| 'एदेसि लेस्साणं' एतासां शुभलेश्यानां शुद्धि प्रत्ययमुपक्रमः बाह्याभ्यन्तर सर्वपरिग्रहत्यागेः । १९०४॥ लेस्सासोधी अज्झवसाणविसोधीए होइ जीवस्स । अज्झवसाणविसोधी मंदकसायस्स णादव्वा ।। १९०५ ।। 'लेस्सासोधी' लेश्यानां शुद्धि: । 'अज्झवसाणविसोधीए होदि' परिणामविशुद्धया भवति । 'अज्झवसाविसुद्धी' परिणामविशुद्धिश्च । 'मंदकसायरस' मन्दकषायस्य भवतीति ज्ञातव्या ।।१९०५ ॥ कषायाणां मन्दता कथमित्यात्राह मंदा हुंति कसाया बाहिरसंगविजडस्स सव्वस्स । गिves कसायबहुलो चैव हु सव्वंपि गंथकलिं ॥। १९०६॥ ८४५ 'मंदा हृतिकसाया' कषाया मन्दा भवन्ति कृतबाह्यसंगपरित्यागस्य । कषायबहुल एवायं सर्वो जीवः सर्वं ग्रन्थकलि गृह्णाति ॥१९०६ ॥ जह इंहिं अग्गी वढइ विज्झाइ इंधणेहिं विणा । थेहिं तह साओ इ विज्झाई तेहिं विणा || १९०७ || वही कहते हैं गा०-- क्षपक कृष्ण, नील, कापोत, इन तीन अप्रशस्त लेश्याओंको त्यागकर वैराग्य भावनासे युक्त होता है और संसारसे अत्यन्त भयभीत रहता है || १९०२॥ गा०-- तथा पीत, पद्म, शुक्ल, इन तीन प्रशस्त लेश्याओंको क्रमसे स्वीकार करके उत्कृष्ट संवेगभावको धारण करता है ।। १९०३ || गा० - इन लेश्याओं की विशुद्धिका उपक्रम यह है कि समस्त परिग्रहों का सर्वथा त्याग होता है अर्थात् परिग्रहके त्यागसे लेश्या में विशुद्धि आती हैं ।। १९०४ ॥ गा० - परिणामों की विशुद्धि होनेसे लेश्या की विशुद्धि होती है । और जिसकी कषाय मन्द है उसके परिणामोंमें विशुद्धि होती है || १९०५॥ Jain Education International गा० - कषायों की मन्दता कैसे होती है, यह बतलाते हैं जो बाह्य परिग्रहका त्याग करता है उसकी कषाय मन्द होती है । जिसकी कषाय तीव्र होती है वही सब परिग्रहरूप पापको स्वीकार करता है ।।१९०६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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