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विजयोदया टीका सव्वुक्कसं जोगं जुजंता दंसणे चरित्ते य ।
कम्मरयविप्पमुक्का हवंति आराधया सिद्धा ॥१९२२।। 'सवुक्कस्सं' सर्वोत्कृष्टं दर्शनचारित्रयोर्योग प्रतिपद्यमानाः कर्मरजोभ्यो विप्रयुक्ता आराधकाः सिद्धा भवन्ति ॥१९२२॥
इयमुक्कस्सियमाराधणमणुपलित्तु केवली भविया ।
लोगग्गसिहरवासी हवंति सिद्धा धुयकिलेसा ॥१९२३॥ _ 'इय उक्कस्सिय' एवमुत्कृष्टामाराधनामनुपाल्य केवलिनो भूत्वा निरस्तक्लेशाः लोकाग्रशिखरवासिनः . सिद्धा भवन्ति ॥१९२३॥
अह सावसेसकम्मा मलियकसाया पणट्टमिच्छत्ता । - हासरइअरइभयसोगदुगुंछावेयणिम्महणा ॥१९२४।। 'अह सावसेसकम्पा' अथ सावशेषकर्माणो मथितकषायाः प्रणष्टमिथ्यात्वा हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्सावेदत्रिकमथनाः ॥१९२४।।
पंचसमिदा तिगुत्ता सुसंवुडा सव्वसंगउम्मुक्का।
धीरा अदीणमणसा समसुहदुक्खा असंमूढा ।।१९२५॥ 'पंचसमिदा' समितिपंचकोपेता गुप्तित्रयोपेताः सुसंवृता अपाकृतसर्वसंगा धीरा अदीनमनसः समसुखदुःखा असंमूढाः ॥१९२५॥
सव्वसमाधाणेण य चरित्तजोगो अधिद्वदा सम्म ।
धम्मे वा उवजुत्ता ज्झाणे तह पढमसुक्के वा ॥१९२६॥ 'सव्वसमाधाणेण' सर्वेण समाधानेन चारित्रे सम्यगवस्थिता धर्मध्याने प्रथमशुक्ले वा उपयुक्ताः ।।१९२६॥
. गा०—सबसे उत्कृष्ट अर्थात् क्षायिक सम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यक् चारित्रको प्राप्त करके वे आराधक कर्मरूपी रजसे अर्थात् शेष चार अघाति कर्मोंसे छूटकर सिद्ध हो जाते हैं ।।१९२२।। ..... गाo-इस प्रकार उत्कृष्ट आराधनाका पालन करके केवलज्ञानी होकर सम्पूर्ण क्लेशोंसे छूट जाते हैं और लोकके शिखर पर विराजमान होते हैं ॥१९२३॥ . .
गा०-किन्तु जिनके कर्मबन्धन शेष रहता है वे मिथ्यात्वको नष्ट करके तथा कषायोंका और हास्य रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, तीनों वेदोंका मथन करके, पाँच समिति और तीन गुप्तियोंके द्वारा सम्यक् रूपसे संवर करके समस्त परिग्रहसे रहित होकर धीरतापूर्वक, मनमें दीनताका भाव नहीं लाते । मोहरहित होकर सुख और दुःखमें समभाव रखते हैं। मन, वचन, कायको समाहित करके चारित्रमें सम्यनिष्ठ रहते हैं तथा धर्मध्यान या प्रथम शुक्लध्यानमें उपयोग लगाते हैं ॥१९२४-२६||
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