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विजयोदया टोका
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'ज्झायंतो अणगारो' मरणकाले आरौिद्रयोः परिणतो भूत्वा यः स्वदेहं जहाति नासौ क्षपकः सुगति लभते ।।१९४१॥
जदि दा सुभाविदप्पा वि चरिमकालम्मि संकिलेसेण ।
परिवडदि वेदणट्टो खवओ संथारमारूंढो ।।१९४२।। 'जदि दा सुभाविदप्पा वि' यदि तावत्सुभावितात्मापि संस्तरमारूढः वेदनातः क्षपकः संक्लेशेन हेतुना सन्मार्गात्परिपतति ॥१९४२।।
किं पुण जे ओसण्णा णिच्चं जे वा वि णिच्चपासत्था ।
जे वा सदा कुसीला संसत्ता वा जहाछंदा ॥१९४३।। ..... किं पुण' किं पुनर्न परिपतन्ति ये नित्यमवसन्ना ये च नित्यं पावस्था ये वा. सदा कुशीलाः संसक्का वा स्वच्छन्दाः ॥१९४३॥ तत्र अवसन्नाः निरूप्यन्ते
'गच्छंहि केइ पुरिसा पक्खी इव पंजरंतरणिरुद्धा ।
सारणपंजरचकिदा ओसण्णागा पविहरंति ॥१९४४॥ यथा कर्दमे क्षुण्णः मार्गाद्धीनोऽवसन्न इत्युच्यते स द्रव्यतोऽवसन्नः । भावावसन्नः अशुद्धचरित्रः सीदति उपकरणे, वसति संस्तरप्रतिलेखने, स्वाध्याये, विहारभूमिशोधने, गोचारशुद्धौ, ईर्यासमित्यादिषु, स्वाध्यायकालावलोकने, स्वाध्यायविसर्गे, गोचारे, च अनुद्यतः, आवश्यकेष्वलसः, जनातिरिक्तो वा जनाधिकं करोति कुर्वश्च यथोक्तमावश्यक वाक्कायाभ्यां करोति न भावत एवंभूतश्चारित्रेऽवसीदतीत्यवसन्नः । पन्थानं पश्यन्नपि
___ गा०-यदि अपनी आत्माकी सम्यक् भावना करने वाले भी संस्तरपर आरूढ़ हो, संक्लेशके कारण मरते समय सन्मार्गसे गिर जाते हैं ।।१९४२।।
गा०–तो जो नित्य अवसन्न, नित्य पार्श्वस्थ, सदा कुशील, संसक्त और स्वच्छन्द साधु हैं उनका कहना ही क्या है ? ॥१९४३।।
गा०-टी०-अवसन्न आदिका स्वरूप कहते हैं
जैसे कोई पुरुष कीचड़में फंस गया या मार्गमें थक गया तो उसको अवसन्न कहते हैं। वह द्रव्यरूपसे अवसन्न है। उसी प्रकार जिसका चारित्र अशुद्ध होता है वह भाव अवसन्न होता है। वह उपकरणमें, वसतिकामें, संस्तरके शोधनेमें, स्वाध्यायमें, विहार करनेकी भूमिके शोधने में, गोचरीकी शुद्धतामें, ईर्यासमिति आदिमें, स्वाध्यायके कालका ध्यान रखने में और स्वाध्यायकी समाप्तिमें तत्पर नहीं रहता । छह आवश्यकोंमें आलस्य करता है । या दूसरोंसे करता तो अधिक है किन्तु वचन और कायसे करता है, भावसे नहीं करता। इस प्रकार चारित्रका पालन करते हुए खेदखिन्न होता है इससे उसे अवसन्न कहते हैं।
१. इस गाथा पर किसी प्रति में क्रमांक नहीं दिया है । न इस पर किसी की टीका ही है । सं०
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