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भगवती आराधना 'इय समभावमुवगो' एवं, समचित्ततां गतः प्रशस्तध्यानं वर्तयेत्, लेश्याभिविशुद्धगुणश्रेणीमारोहति ॥१९००॥
जह बाहिरलेस्साओ किण्हादीओ हवंति पुरिसस्स । अब्भंतरलेस्साओ तह किण्हादी य पुरिसस्स ।।१९०१॥ किण्हा णीला काओ लेस्साओ तिणि अप्पसत्थाओ।
पजहइ विरायकरणो संवेगमणुत्तरं पत्तो ॥१९०२॥ जह बाहिरलेस्साओं' कृष्णनीलकापोताश्चेति तिस्रः अप्रशस्ताः प्रजहाति वैराग्यभावनावान संसारभीरुतां परामुपागतः ॥१९०१-१९०२।। लेश्यापूर्वक अर्थात् क्रमसे पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यारूप परिणमन करता हुआ गुणश्रेणिपर अर्थात् उपशम या क्षपक श्रेणिपर आरोहण करता है ॥१९००॥
गा०-जैसे पुरुषके शरीरमें कृष्ण आदि द्रव्य लेश्या-शरीरका रंग काला गोरा होता है । वैसे ही अभ्यन्तरमें कृष्ण आदि भावलेश्या होती हैं ।।१९०१॥
विशेषार्थ-लेश्याके दो भेद हैं-द्रव्यलेश्या और भावलेश्या। मिथ्यात्व आदिके कारण जीवके जो तीव्रतम आदि भाव होते हैं वह भावलेश्या है। आगममें कहा है कि मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगसे प्राणियोंके जो संस्कार होते हैं वह भावलेश्या है । लेश्या छह हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल । इनमेंसे प्रारम्भकी तीन लेश्या अशुभ हैं और शेष तीन शुभ हैं। अशुभ लेश्याओंमें तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम रूपसे तथा शुभलेश्याओंमें मन्द, मन्दतर और मन्दतमरूपसे हानिवृद्धि होती रहती है। जैसे अशुभ लेश्याओंमें कापोत लेश्या तीव्र है, नीललेश्या तीव्रतर है और कृष्णलेश्या तीव्रतम् है.। इसी तरह शुभलेश्याओंमें पीतलेश्या मन्द, पद्मा मन्दतर और शुक्ला मन्दतम है। उदाहरणके रूपमें जो व्यक्ति फलसे भरे वृक्षको जड़से काटकर फल खाना चाहता है उसके कृष्णलेश्या है। जो जड़को छोड़ केवल तना काटकर फल, खाना चाहता है उसके नीललेश्या है। जो एक शाखा काटकर फल खाना चाहता है उसके कापोत लेश्या है। जो एक उपशाखा तोड़कर फल खाना चाहता है उसके पीतलेश्या है। जो केवल फल ही तोड़कर खाना चाहता है उसके पद्मलेश्या है। और जो जमीनपर गिरे हुए फलोंको ही उठाकर खाना चाहता है उसके शुक्ललेश्या होती है। जो रागी, द्वषी, अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभसे 'युक्त है, निर्दय है, कलहप्रिय है, मद्य मांसके सेवनमें आसक्त है वह कृष्णलेश्या वाला होता है ।
जो घमण्डी, मायावी, विषयलम्पट, अनेक प्रकारको परिग्रहमें आसक्त प्राणी है वह नीललेश्यावाला होता है। जो परकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करता है, अपनी प्रशंसासे प्रसन्न होता है, फिर हानि लाभको भी नहीं देखता, लड़ाई होनेपर मरने मारनेको तैयार रहता है वह कापोतलेश्या वाला है। जो सर्वत्र समदृष्टि है कृत्य अकृत्य, हित अहितको जानता है दयादानका प्रेमी है वह पीतलेश्यावाला होता है। जो त्यागशील, क्षमाशोल, भद्र और साधुजनोंकी पूजामें तत्पर रहता है वह पद्मलेश्यावाला होता है। जो माया और निदान नहीं करता, रागद्वेष नहीं करता वह शुक्ल लेश्यावाला है ॥१९०१॥
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