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विजयोदया टीका
मनोज्ञशय्यासनकान्तयोषितां शुभांश्च यः स्पर्शविधीन् मनोहरान् ॥८॥ न सेवितुं रागवशेन वाञ्छति यदृच्छया वा न निषेव्य रज्यति । प्रमर्द्दनाच्छादन] मार्जनानि वा विलेपनाभ्यञ्जनमज्जनानि च ॥९॥ शरीरसौख्याय न यश्च सेवते विवृद्धवैराग्ययुतो महायतिः । हिमोष्णभूशैलशिलातृणादिजानशोभनान् स्पर्शविषोंश्च सर्वदा ॥ १० ॥ न नेच्छति द्व ेष्टि न वाप्युपागतान् त्वगिद्रियस्यैष भजेद्विजिष्णुतां । रणे रिपूणामिव निर्भयो जयेत् यथेन्द्रियाणां जयमास्थितो यतिरिति ॥ ११ ॥
निद्रायाः प्रतिपक्षभूतोऽप्रमादः, अनशनमवमोदर्य, रसपरित्यागः, संसाराद्भीतिनिद्रादोषचिन्ता रत्नत्रयेऽनुरागः स्वदुश्चरितानां स्मरणेन शोक इत्येवमादिकः । स्नेहप्रमादप्रतिपक्षभावनोच्यते--बन्धुताया अनवस्थितत्वभावना, तदर्थाने कारम्भपरिग्रहप्रवृत्तिचिन्ता, धर्मविघ्नता, दोषापेक्षणमित्यादिकः । एवंभूतेनाप्रमादफलकेन प्रवर्तता निरुध्यते । 'कीरदि फलगेण जहा' क्रियते फलकेन यथा । 'णावाए जलासवणिरोघो' नावः जलास्रवनिरोधः ||१८३३॥
गुत्तिपरिखाइ हि गुत्तं संजमणयरं ण कम्मरिउसेणा । बंधे ससेणा पुरं व परिखादिहिं सुगुत्तं ॥ १८३४॥
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'गुत्तिपरिखाहिगुत्तं' गुप्तिपरिखाभिर्गुप्तं, संयमनगरं कर्मरिपुसेना न भक्तुं शक्नोति । परिखादिभिर्गुप्तं शत्रुसेवेति । गुप्तेः संवरताख्याता ॥ १८३४।।
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न करनेकी इच्छा नहीं करता । और अचानक सेवनमें आ जाय तो द्व ेष नहीं करता, वह रसना इन्द्रियका जेता होता है । जो मनोज्ञ शय्या, मनोज्ञ आसन, सुन्दर स्त्री तथा मनोहर शुभ स्पर्शवाली वस्तुओंको रागके वशीभूत हो सेवन करनेकी इच्छा नहीं करता । अचानक सेवनमें आनेपर उनसे राग नहीं करता । तथा जो बढ़े हुए वैराग्यसे शोभित महायती शारीरिक सुखके लिये शरीरका दबाना, आच्छादन, मार्जन, लेपन, तेल, स्नान आदिका सेवन नहीं करता । तथा सर्वदा अतिशीतल या अतिउष्ण पृथ्वी, पहाड़, पत्थर, तृण आदि जन्य अप्रिय स्पर्शो को सेवन न करनेकी इच्छा नहीं करता और ऐसे अप्रिय स्पर्श प्राप्त होनेपर उनसे द्वेष नहीं करता वह स्पर्शन इन्द्रियका जीतनेवाला होता है । जैसे युद्ध में निर्भय व्यक्ति शत्रुओंको जीतता है । उसी प्रकार वह यति इन्द्रियों को जीतता है । निद्राका विरोधी है अप्रमाद, अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, संसारसे भय, निद्राके दोषोंका चिन्तन, रत्नत्रयमें अनुराग, अपने बुरे आचरणोंका स्मरण करके शोक करना आदि । स्नेह नामक प्रमादकी विरोधी भावना कहते हैं-बन्धुता अस्थिर है ऐसा विचारना जिनके प्रति स्नेह होता है उनके लिये अनेक आरम्भ परिग्रह आदिकी चिन्ता करना होती है । धर्म साधनमें विघ्न होता है । इत्यादि दोषोंका चिन्तन स्नेहका प्रतिपक्षी है । इस प्रकारके अप्रमादरूप पाटियेसे प्रमादजन्य आश्रवका संवर होता है ||१८३३||
गा० - जैसे शत्रुकी सेना परिखा आदिसे सुरक्षित नगरको नष्ट नहीं कर सकती । वैसे ही कर्मरूपी शत्रुकी सेना गुप्तिरूपी परिखा आदिसे युक्त संयमरूपी नगरको नष्ट नहीं कर सकती ।। १८३४॥
१. योषितः शुभाश्च -आ० । २. मार्जनानि अ० मु० । ३. धंसेदि -- मूलारा० ।
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