Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

Previous | Next

Page 898
________________ विजयोदया टीका ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यादिकं कुलं दुरधिगमनीयं सुकुला'नामल्पत्वात् असकृन्नीचैर्गोत्रबन्धनात् । मिथ्यात्वोदयात् प्रायेण प्राणिनो गुणान् गुणिजनं च निन्दन्त्याक्रोशन्ति, निर्गुणोऽपि कुलाभिमानमतिमहदुद्वहति, तेन नीचैर्गोत्रमुपचिनोति, गुणे गुणिजने चानुरागः कुलाभिमानतिरस्करणं वा कदाचिदेव भवति इति शोभनं कुलं कदाचिदेव लभ्यते । चारित्रमोहोदयात षड़जीवनिकायबाधाकरणे सततमद्यतः तदीयरूपशोभोन्मूलनसंपादनेनोपाजितेनाशुभरूपनामकर्मणा विरूपो बहशो भवति । जीवदयां कदाचिदेव क्वचिदेव करोति । प्रशस्तरूपनामकर्मलभ्यं सौरूप्यमपि क्लेशेन लभ्यते । परजीवसंतापकरणे कृतोत्साहः सर्वदैवेति रोगी भवति बहशः, परसंतापपरिहारं वैयावृत्यं च कदाचिदेव करोति । इति नीरोगतापि कादाचित्की दुर्लभा । परेषां प्रायेणायुनिहन्तीति स्वल्पायुरेवायं जनो जायते । कदाचिदेवाहिंसावतपरिपालनाचिरंजीविता सदा न लभ्यते । समीचीनज्ञानिजनदूषणात तन्मात्सर्यात तद्विघ्नकरणात्तदासादनाच्चक्षरादीन्द्रियोपघातकरणाच्च मतिश्रुतज्ञानावरण बराको बध्नातीति दुर्मधा भवति । बहुषु जन्मशतसहस्रेषु मतिश्रु तज्ञानावरणक्षयोपशमात् शुभपरिणामोपनीतात् कदाचिदेव विवेककारिणी बुद्धिर्भवति । सत्यामपि बुद्धौ हिताहितविचारणक्षमं धर्मश्रवणमतिदुर्लभं, यतीनां विरागद्वेषाणां, समीचीनज्ञानप्रकाशनोन्मलितदुर्भेद्यमोहान्धतानां, अशेषजीवनिकायदयाक्रियोद्यतानां असौलभ्यात्, तीव्रमिथ्यादर्शनोपनीतगुणिजनद्वेषेण मिथ्याज्ञानलवलाभदुर्विदग्धतया स्वगृहीततत्त्वपरवशतया आलस्येन वा यतीनां धर्मज्ञजनोंसे बसा हुआ देश मिलनेपर भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि कुल मिलना कठिन है क्योंकि अच्छे कुल बहुत कम हैं। और इसका कारण यह है कि जीवोंके निरन्तर नीच गोत्रका बन्ध हुआ करता है। मिथ्यात्वके उदयसे प्रायः प्राणी गुणों और गुणीजनोंकी निन्दा करते हैं, उनके सम्बन्धमें बका करते हैं। गुणहीन भी अपने कुलका नव अभिमान रखते हैं। उससे वे नीच गोत्रका बन्ध करते हैं । गुणोंमें और गुणीजनोंमें अनुराग तथा कुलके अभिमानका तिरस्कार कम ही देखा जाता है । इसलिये जीवोंको अच्छा कुल कम ही मिलता है। चारित्रमोहके उदयसे जीव छह कायके जीवोंको बाधा देने में निरन्तर लगे रहते हैं वे उनके रूपकी शोभाको विनष्ट करते हैं। उससे उपार्जित अशुभ नामकर्मसे जीव अधिकतर विरूप होते हैं। जीवोंपर दया कम ही लोग करते हैं । अतः प्रशस्त रूपनामकर्मके द्वारा प्राप्य सुन्दर रूप भी बड़े कष्टसे प्राप्त होता है। प्राणी सर्वदा दूसरे जीवोंको संताप देनेका उत्साह रखते हैं। इसलिये अधिकतर रोगी होते हैं । दूसरोंका कष्ट दूर करनेवालो वैयावृत्य कम ही करते हैं। इसलिये नीरोगता भी दुर्लभ है । प्राणी प्रायः दूसरोंकी आयुका घात करते हैं उन्हें मार देते हैं। इससे वे अल्प आयुवाले होते हैं । कदाचित् ही अहिंसाव्रतका पालन करनेसे चिरजीवि होते हैं, सदा चिरजीवी नहीं होते। सच्चे ज्ञानिजनोंको दूषण लगानेसे, उनसे डाह करनेसे, उनके ज्ञानाराधनमें विघ्न डालनेसे, उनकी आसादना करनेसे तथा चक्षु आदि इन्द्रियोंका घात करनेसे प्राणी मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मो का बन्ध करनेसे बुद्धिहीन होते हैं । लाखों जन्मोंमेंसे कुछ ही जन्मोंमें शुभपरिणामवश मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेसे विवेकशील बुद्धि प्राप्त होती है । बुद्धि प्राप्त होनेपर भी हित अहितके विचारमें समर्थ धर्मका सुनना दुर्लभ है। क्योंकि रागद्वषसे रहित, सच्चे ज्ञानके प्रकाशनसे दुर्भेद्य मोहान्धकारका उन्मूलन करनेवाले और समस्त जीवोंपर दया करनेवाले मुनिगण दुर्लभ हैं। तथा तीव्र मिथ्यादर्शनके कारण गुणीजनोंसे द्वेष करनेवाले या थोड़ा-सा मिथ्याज्ञान प्राप्त करके अपनेको बड़ा विद्वान् माननेवाले या अपने जाने हुए तत्त्वके १. नामसुलभत्वात् -आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922 923 924 925 926 927 928 929 930 931 932 933 934 935 936 937 938 939 940 941 942 943 944 945 946 947 948 949 950 951 952 953 954 955 956 957 958 959 960 961 962 963 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974 975 976 977 978 979 980 981 982 983 984 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994 995 996 997 998 999 1000 1001 1002 1003 1004 1005 1006 1007 1008 1009 1010 1011 1012 1013 1014 1015 1016 1017 1018 1019 1020