Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 899
________________ ८३२ भगवती आराधना . स्वपरोद्धरणप्रवीणतापरिज्ञानाच्च न ढोकते यतिजनमिति धर्मश्रवणस्य दुर्लभता । कदाचिदेव पापोपशमाद्यतिजनानु'ढोकनेऽपि नयपुरस्सरे संप्रश्ने प्रशस्तवागनुयायिनि गुरुजने चाभिमुखे सति श्रवणं भवतीति दुर्लभता श्रवणस्य । किञ्च यतिजननिकेतनमुपगतोऽपि यदच्छया निद्राति, स्वयं परेषां यत्किचिदसारं वदति, मुग्धानां वा वचनं श्र णोति न विनयेन ढोकत इति वा दुर्लभं श्रवणं । श्रतेऽपि धर्मे तत्परिज्ञानमतिदुर्लभं श्र तज्ञानावरणोदयात् । दुःकरत्वं मनःप्रणिधानस्य कदाचिदप्यश्र तपूर्वत्वात, सूक्ष्मत्वाच्च जीवादितत्त्वस्य । श्र तज्ञानाधिकरणे क्षयोपशमे मनःप्रणिधानं वक्तुर्वचनसौष्ठवं चेति सकलमिदमसुलभमिति धर्मज्ञानं दुर्लभं । ज्ञातेऽपि धर्मे अस्ति धर्मो जीवपरिणामसम्यक्त्वज्ञानचरणतपोदानप्रजात्मकोऽभ्यदयनिश्रयसफलदायी जिनावणितरूपइति श्रद्धानं न सुखेन लभ्यते, दर्शनमोहोदयात् । उपदेशकालकरणलब्धयश्च कादाचित्का इति ।।१८६३।। लद्धेसु वि तेसु पुणो बोधी जिणसासणम्मि ण हु सुलहा । कुपधाकुलो य लोगो जं बलिया रागदोसा य ॥१८६४।। 'लद्ध सु वि तेसु पुणों' लब्धष्वपि तेषु मनुजभवादिषु बोधिर्दीक्षाभिमुखा बुद्धिर्न सुलभा प्रबलत्वात्संयमघातिकमणः । कुमार्गाकुलत्वात् लोकस्य बहूनामाचरणमेव प्रमाणयन् यत्किचनाचरति, बलवन्तश्च रागद्वषाः ज्ञानश्रद्धानोपेतमपि न सन्माग ढौकित् ददति ॥१८६४।। परवश मनुष्योंके कारण या यतिगणके आलस्यसे अथवा अपना और दूसरोंका उद्धार करने में दक्ष न होनेसे यतिजन भी नहीं आते हैं इससे भी धर्मश्रवणकी दुर्लभता है। कदाचित् पापका उपशम होनेसे यतिजनके पधारनेपर भी विनयपूर्वक प्रश्न करनेपर और प्रशस्त वचन बोलनेवाले गुरुके सन्मुख होनेपर धर्म सुननेको मिलता है इसलिये धर्मश्रवणकी दुर्लभता है । अथवा मुनिगणके वास स्थानपर जाकर भी सोता है स्वयं जो कुछ असार वचन बोलता है या मूखों के वचन सुनता है, विनय पूर्वक बर्ताव नहीं करता। इससे भी धर्म श्रवण दुर्लभ है । धर्म सुननेपर भी श्रुतज्ञानावरणका उदय होनेसे उसको समझना अतिदुर्लभ है। तथा समझनेपर भी उसमें मन लगाना दुष्कर है क्योंकि पहले कभी नहीं सुना था । तथा जीवादि तत्त्व भी सूक्ष्म है। श्रुतज्ञानका क्षयोपशम, मनका लगना, वक्ताका वचन सौष्ठव ये सब दुर्लभ होनेसे धर्मज्ञान दुर्लभ है, धर्मका ज्ञान होनेपर भी 'जिन भगवान्के द्वारा कहा हुआ स्वर्ग और मोक्षरूप फलको देनेवाला, जीवके सम्यक्त्व, ज्ञान चारित्र तप दान पूजा भावरूप धर्म है' ऐसा श्रद्धान दुर्लभ है क्योंकि जीवोंके दर्शनमोहका उदय रहता है। उपदेशलब्धि, कालब्धि और करणलब्धि भी सदा नहीं होती, कदाचित् ही होती हैं ॥१८६३।। गा०-टो०-मनुष्यभव आदिके प्राप्त होनेपर भी 'बोधि' अर्थात् जिन दीक्षाकी ओर अभिमुख बुद्धिका होना सुलभ नहीं है क्योंकि जीवोंके संयमको घातनेवाला कर्म प्रबल होता है। तथा यह लोक मिथ्यामतोंसे भरा है। अतः बहुत लोग जिस धर्मका आचरण करते हैं उसे ही प्रमाण मानकर जो कुछ मनमें आता है, करते हैं। रागद्वषके बलवान होनेसे ज्ञान और श्रद्धानसे युक्त भी मनुष्य सन्मार्गपर नहीं चलता ॥१८६४।। १. नुपढौकते विनय -आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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