________________
विजयोदया टीका सुहुमम्मि कायजोगे वट्टतो केवली तदियसुक्कं ।
झायदि णिरुभिदु जे सुहुमत्तं कायजोगपि ॥१८८१।। 'सुहमम्मि कायजोगे' सूक्ष्मे काययोगे प्रवर्तमानः केवली तृतीयं शुक्लं ध्याति निरोर्बु तमपि सूक्ष्मं वा काययोगं ।।१८८१॥ -
अवियक्कमवीचारं अणियट्टिमकिरियं च सीलेसिं ।
ज्झाणं णिरुद्धयोग अपच्छिम उत्तमं सुक्कं ।।१८८२।। 'अविदक्कमवीचारं' पूर्वोक्तवितर्कवीचाररहितत्वात् अवितर्कमवीचारं, 'अणियट्टि' सकलकर्मसातनमकृत्वा न निवर्तत इत्यनिवति । 'अकिरियं समुच्छिन्नप्राणापानप्रचारसर्वकायवाङ्मनोयोगपरिस्पन्दनक्रियाव्यापारत्वात् अक्रियं । 'सोलेसि' शीलानामीशः शीलेशः यथाख्यातचारित्रं । शीलेशस्य भावः शैलेश्य, तत्सहचारि ध्यानमपि शैलेश्यं । 'निरुद्धयोगं'। अपश्चिमं न विद्यते पश्चाद्धाविध्यानमस्मादित्यपश्चिमं । 'उत्तमं सुक्कं' परमं शुक्लं ॥१८८२॥
तं पुण णिरुद्धजोगी सरीरतियणासणं करेमाणो ।
सवण्हु अपडिवादी ज्झायदि ज्झाणं चरिमसुक्कं ॥१८८३॥ 'तं पुण' तच्चतुर्थ शुक्लध्यानं । निरुद्धयोगः सर्वज्ञः अप्रतिपातिव्यानं ध्याति 'शरीरत्रिकनाशं कुर्वन्, ____ गाo-अतः सूक्ष्मकाययोगमें स्थित केवली उस सूक्ष्म भी काययोगको रोकनेके लिये तीसरा शुक्लध्यान ध्याता है ।।१८८१॥
गा०-टी०—यह तीसरा शुक्लध्यान पूर्वोक्त वितर्क और वीचारसे रहित होनेसे अवितर्क और अवीचार होता है। समस्त कर्मो को नष्ट किये बिना समाप्त नहीं होता इसलिये अनिवति है । इसमें प्राण अपान श्वास उच्छ्वासका प्रचार, समस्त काययोग मनोयोग वचन योगरूप हलनचलन क्रियाका व्यापार नष्ट हो जाता है। इसलिये यह अक्रिय है। शीलोंके स्वामीको शीलेश कहते हैं। उसके भावको शैलेशीभाव कहते हैं वह है यथाख्यात चारित्र । उसके साथ होनेवाले ध्यानको भी शैलेशी कहा है। उससे सब कर्मो का आस्रव रुक जाता है अतः उसे निरुद्धयोग कहा है। इसके अनन्तर कोई ध्यान नहीं होता इससे इसे अपश्चिम कहा है। तथा यह परम शुक्लध्यान है ॥१८८२।।
विशेषार्थ-शौलेशीभाव से यथाख्यात चारित्र लिया है किन्तु यथाख्यात चारित्र तो ग्यारहवें बारहवें गुणस्थानमें भी होता है किन्तु उसे शैलेशी नहीं कहा। क्योंकि शैलेशीपना तीसरे शुक्लध्यानकी अवस्थासे पहले नहीं होता, इसका कारण है कर्मोंका आस्रव होना । तथा तीसरेके पश्चात् भी चतुर्थ शुक्लध्यान होता है फिर भी तीसरेको विवक्षा भेदसे अपश्चिम कहा है ॥१८८२।।
गा.-काययोगका निरोध करके अयोग केवली औदारिक तैजस और कार्मण शरीरों
१. रक्रियना -आ० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org