________________
भगवती आराधना ध्येयेन सह वर्तत इति श्रुतज्ञानमेवावलम्ब्य सवितर्कमित्युच्यते । अथवा वितर्कशब्दः श्रुतं तद्धद्धतुत्वात् । श्रुतज्ञा ध्यानसंज्ञितं सह कारणेन श्रुतेन वर्तत इति सवितर्कः ॥१८७५।।
अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो हु वीचारो।
तस्स य भावेण तयं सुत्ते उत्तं सवीचारं ॥१८७६॥ 'अत्याण वंजणाण य जोगाण य संकमो खु वीचारो' अर्थानां ये व्यञ्जनाः शब्दास्तेषामिति, वैयधिकरण्येन सम्बन्धः, न पुनरर्थानां व्यञ्जनानां चेति समुच्चयः । अर्थपृथक्त्वस्य पृथक्त्वशब्देनोपादानात् । योगानां च संक्रमो वीचारः 'तस्स य भावेण' वीचारस्य सद्भावेन । 'तयं' तद्धि शुक्लध्यानं सूत्रे सवीचारमित्युक्तं । 'अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला' इत्येवमा दिपरिमितानेकद्रव्यप्रत्यय परमश्रुतवाक्योद्भूतं ध्यानमिति पृथग्भूतद्रव्यालम्बनत्वेन रूपेण एकद्रव्यालम्बनात् एकत्ववितर्काद्भिद्यते योगत्रयसहायत्वादेकयोगादविचाराद्वितीयध्यानाद्भिद्यते । उपशान्तमोहनीयस्वामिकत्वात् क्षोणकषायस्वामिकाद्धयानाद्भिद्यते । सवितर्कत्वेन अवितर्काभ्यां तृतीयचतुर्थाभ्यां विलक्षणं । अत एव नामनिर्देशेनैव ध्यानान्तरविलक्षणं पृथक्त्वसवितर्कसवीचारमिति लक्षणमुक्तं ॥१८७६।।
अर्थात् चौदह पूर्वो का ज्ञाता साधु ही इस शुक्लध्यानको ध्याता है इससे इस प्रथम शुक्लध्यानको सवितर्क कहते हैं। अर्थात् चौदह पूर्व श्रुतरूप होनेसे उनमें जो वस्तुविवेचन है उसको भी वितर्क शब्दसे कहते है। प्रथम शुक्लध्यानमें उस अर्थश्रुतरूप वितर्कका ध्यान किया जाता है इससे उसे सवितर्क कहते हैं । अथवा श्रुतका कारण होनेसे वितर्क शब्दका अर्थ श्रुत है । ध्यान श्रुतज्ञानकी संज्ञा है उसका कारण श्रुत है । तो अपने कारण श्रुतके साथ रहनेसे उसे सवितर्क कहते हैं।।१८७५।।
गा०-टी०-तथा अर्थोके वाचक जो शब्द हैं उनके संक्रम अर्थात् परावर्तन को और योगोंके परिवर्तनको विचार कहते हैं। 'अत्थाण वंजणाण य' का अर्थ अर्थो के और व्यंजनोंके परिवर्तनको वीचार कहते हैं इस प्रकारसे समुच्चयरूप नहीं लेना चाहिये क्योंकि पृथक्त्व शब्दसे अर्थका पृथक्त्व ग्रहण किया है। इस वीचारके होनेसे इस शुक्लध्यानको आगममें सवीचार कहा है।
'अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' इत्यादि परिमित अनेक द्रव्योंका ज्ञान कराने में समर्थ श्रुतके वचनोंसे उत्पन्न हुआ यह ध्यान भिन्न-भिन्न द्रव्योंका आलम्बन करता है अतः एक ही द्रव्यका आलम्बन करनेवाले एकत्व वितर्क शुक्लध्यानसे भिन्न होता है। तथा पृथक्त्व वितर्क शुक्लध्यान तीनों योगोंकी सहायतासे होता है और एकत्ववितर्क एक ही योगकी सहायतासे होता है। इससे भी वह इससे भिन्न पड़ता है। पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यानका स्वामी उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गणस्थानवर्ती होता है और एकत्ववितर्कका स्वामी क्षीणकषाय गणस्थानवर्ती होता है। इससे भी वह इससे भिन्न है। पृथक्त्ववितर्क वितर्क सहित होता है और तीसरा तथा चतुर्थ शुक्लध्यान वितर्क रहित होते हैं। अतः वह तीसरे और चतुर्थ शुक्लध्यानसे विलक्षण है। अतः पृथक्त्ववितर्क सवीचार नामसे ही अन्य ध्यानोंसे इसकी विलक्षणता प्रकट होती है। इस प्रकार प्रथम शुक्लध्यानका लक्षण कहा है ।।१८७६।।
१. माद्यपरि -आ० । २. यमपरशु -अ० मु० । -मादिपरिमितानेकद्रव्य प्रत्यायनपरश्रृत-मूलारा०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |