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भगवती आराधना ध्यातुरालम्बनवाहुल्यं दर्शयत्युत्तरा गाथा
आलंबणं च वायण पुच्छणपरिवट्टणाणुपेहाओ । धम्मस्स तेण अविरुद्धाओ सव्वाणुपेहाओ ॥१८६९।। आलंबणेहि भरिदो लोगो झाइदुमणस्स खवयस्स ।
जं जं मणसा पिच्छदि तं तं आलंबणं हवइ ।।१८७०।। 'धम्मस्स आलंबणेहि भरिदो' ध्यानस्यालम्बनः पूर्णो लोको ध्यातुकामस्य क्षपकस्य यद्यन्मनसा पश्यति तत्तदालम्बनं भवति ।।१८६९।।१८७०॥ धर्मध्यानं व्याख्याय ध्यानान्तरं व्याख्यातुमुत्तरप्रबन्धः
इच्चेवमदिक्कंतो धम्मज्झाणं जदा हवइ खवओ।
सुक्कज्झाणं झायदि तत्तो सुविसुद्धलेस्साओ ॥१८७१॥ 'इच्चेवमदिक्कतो' धर्मध्यानमेवं व्यावणितरूपमतिक्रान्तो यदा भवेत् क्षपकः शुक्लध्यानमसौ ध्याति सुविशुद्धलेश्यासमन्वितः । परिणामश्रेण्या हि उत्तरोत्तरानगणतया स्थितः क्रमेणव प्रवर्तते । न हि प्रथमे सोपानेऽस्थापितचरणः द्वितीयादिकं सोपानमारोढुं प्रभवति । एवमप्रमत्तो धर्मध्याने प्रवृत्त एव शुक्लध्यानमहतीति सूत्रेणानेन ज्ञापितं ॥१८७१।। चतुर्विधशुक्लध्यानं नामतो दर्शयति गाथाद्वयम्
ज्झाणं पुषत्तसवितक्कसवीचारं हवे पढमसुक्कं । . सवितक्केक्कत्तावीचारं ज्झाणं विदियसुक्कं ॥१८७२।। आगेकी गाथासे ध्यान करनेवालेके अनेक आलम्बन बतलाते हैं
गा०-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना तथा अनुप्रेक्षाएँ नामक स्वाध्याय धर्मध्यानके आलम्बन है। अतः सब अनुप्रेक्षा धर्मध्यानके अनुकूल आलम्बन हैं अर्थात् उनको लेकर धर्मध्यान किया जाता है ॥१८६९||
ध्यान करनेके इच्छुक क्षपणके लिये यह लोक आलम्बनोंसे भरा हुआ है । वह मनको जिस ओर लगाता है वही आलम्बन हो जाता है ।।१८७०।। . धर्मध्यानका कथन करके शुक्लध्यानका कथन करते हैं
___ गा०-टी०-इस प्रकार ऊपर कहे धर्मध्यानको जब क्षपक पूर्ण कर लेता है तब वह अति विशुद्ध लेश्याके साथ शुक्लध्यानको ध्याता है । क्योंकि परिणामोंकी पंक्ति उत्तरोत्तर निर्मलताको लिये हुए स्थित है अतः वह क्रमसे ही होती है। जिसने पहली सीढ़ीपर पैर नहीं रखा वह दूसरी सीढ़ीपर नहीं चढ़ सकता। अतः धर्मध्यानमें परिपूर्ण हुआ अप्रमत्त संयमी ही शुक्लध्यान करने में समर्थ होता है, यह बात इस गाथाके द्वारा कही है ॥१८७१।।
आगे दो गाथाओंके द्वारा चार प्रकारके शुक्लध्यानोंके नाम कहते हैं
गा०-पहला शुक्लध्यान पृथक्त्व सवितर्क सविचार नामक है। दूसरा शुक्लध्यान सवितर्क एकत्व अविचार नामक है ॥१८७२।।
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