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विजयोदया टीका
लिङ्गं गृहीत्वा महतामृषीणां, अङ्ग च बिस्रत्परिकर्महीनम् । भङ्गं व्रतानामविचिन्त्य कष्टं सगं कथं कामगुणेषु कुर्याम् ||४|| चर्यामनार्याचरितामधेय धेर्येण हीनः कृपणत्वमेत्य । कथं वृथामुण्डशिराश्चरेयं लिङ्गीभवन्नङ्गविकारयुक्तः ॥ ५॥ इत्येवमादिः शुभकर्मचता सिद्धार्हदाचार्य बहुभूतेषु । चैत्येषु संधे जिनशासने च भक्तिविरक्तिगुणरागिता च ॥
विनीतता संयम अप्रमत्तता, मृदुता, क्षमा, आर्जव:, संतोषः, संज्ञाशल्य गौरव विजयः, उपसर्गपरीषहजयः, सम्यग्दर्शनं, तत्त्वज्ञानं, सरागसंयमं दशविधधर्मध्यानं, जिनेन्द्रपूजा, पूजोपदेशः निःशंकित्वादिगुणाष्टकं, प्रशस्त रागसमेता तपोभावना, पञ्चसमितयः तिस्रो गुप्तय इत्येवमाद्याः शुद्धप्रयोगाः । गृहिणां शुद्धोपयोग उच्यते – गृहीतव्रतानां धारणपालनयोरिच्छा क्षणमपि व्रतभङ्गोऽनिष्टः, अभीक्ष्णं यतिसंप्रयोगः अन्नादिदानं श्रद्धादिविधिपुरस्सरं श्रमनोदनाय भोगान् भुक्त्वापि स्थगित 'सक्तिविगर्हणं, सदा गृहप्रमोक्षप्रार्थना, धर्मश्रवणोपलम्भात्मनसोऽतितुष्टिः भक्त्या पञ्चगुरुस्तवनप्रणमने तत्पूजा, परेषां च स्थिरीकरणमुपबृंहणं, वात्सल्यं, जिनेन्द्रभक्तानामुपकारकरणं, जिनेन्द्रशास्त्राभिगमः, जिनशासनप्रभावना इत्यादिकः । ' तव्वि वरीदं' अनुकम्पाशुद्धप्रयोगाभ्यां विपरीतः परिणामः । 'आसवदारं' आस्रवद्वारं 'पापस्स कम्मरस' अशुभस्य कर्मणः । आस्रवं । । १८२८||
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ऋषियोंका लिंग स्वीकार करके और स्नान आदिके बिना शरीर धारण करके व्रतोंके भंगका विचार न करते हुए काम सेवन आदिका संसर्ग में कैसे कर सकता हूं। मैं धैर्य खो, दोन बनकर अनार्योंके द्वारा आचरण करके योग्य चर्या कैसे कर सकता हूँ । शरीरमें विकार युक्त होकर घूमने पर साधु होकर सिर मुड़ाना व्यर्थ है । इत्यादि प्रकारसे शुभ कर्मकी चिन्ता करना, सिद्ध, अर्हन्त, आचार्य, उपाध्याय, प्रतिमा, संघ और जिनशासन में भक्ति, वैराग्य, गुणोंमें अनुराग, विनययुक्त प्रवृत्ति, संयम, अप्रमादीपना, परिणामों में कोमलता, क्षमा, आर्जव, सन्तोष, आहारादि संज्ञा मिथ्यात्व आदि शल्य और ऋद्धि आदिके मदको जीतना, उपसर्ग और परीषहको जीतना, सभ्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सरागसंयम, दस प्रकारका धर्मध्यान, जिनपूजा, जिनपूजाका उपदेश, निःशंकित आदि आठ गुण, प्रशस्तराग, तपोभावना, पाँच समिति, तीन गुप्ति इत्यादि शुद्ध प्रयोग हैं ।
अब गृहस्थोंका शुद्ध प्रयोग कहते हैं-ग्रहण किये हुए व्रतोंके धारण और पालनकी इच्छा, एक क्षण के लिये भी व्रतभंगको इष्ट न मानना, निरन्तर यतियोंको दान देना, श्रद्धा आदि विधिपूर्व अन्न आदि देना, भोगोंको भोगकर भी थकान दूर करनेके लिये अपनी भोगासक्तिको निन्दा करना, सदा घर छोड़नेकी भावना करना, धर्मका श्रवण करनेको मिले तो मनका अतितुष्ट होना, भक्तिपूर्वक पंचपरमेष्ठीका स्तवन और प्रणाम करना, उनकी पूजा करना, दूसरोंको धर्ममें स्थिर करना, धर्मका बढ़ाना, साधर्मीवात्सल्य, जिनेन्द्रदेवके भक्तोंका उपकार करना, जिन शास्त्रोंका अभ्यास करना, जिनशासनकी प्रभावना करना आदि श्रावकों का शुद्ध प्रयोग है । अनुकम्पा और शुद्ध प्रयोगसे विपरीत परिणाम अशुभ कर्मके आस्रव के द्वार हैं ||१८२८ ।
१. तशक्तिवि - अ० मु० ।
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