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विजयोदया टीका
८१५ मिश्रानुकम्पोच्यते-पृथुपापकर्ममूलेभ्यो हिंसादिम्यो व्यावृत्ताः संतोषवैराग्यपरता विनीताः दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति चोपगतास्तीव्रदोषाद् भोगोपभोगान्निवृत्य शेषे च भोगे कृतप्रमाणाः पापात्परिभीतचित्ताः, विशिष्टदेशे काले च विवर्जितसर्वसावद्याः पर्वस्वारम्भयोगं सकलं विसृज्य उपवासं ये कुर्वन्ति तेषु संयतासंयतेष क्रियमाणानुकम्पा मिश्रानकम्पेत्यच्यते । जीवामि जीवेषु दयां च कृत्वा कृत्स्नामबध्यमानाः जिनसूत्राबाह्या येऽन्यपाखण्डरताविनीताः कष्टानि तपांसि कर्वनि
माणानुकम्पा तया सर्वोऽपि कर्मपण्यं प्रचिनोति ।
देश प्रवृत्तिहिणामकृत्स्नात् मिथ्यात्वदोषोपहतोन्यधर्मः। इत्येषु मिश्रो भवतीति धर्मों मिश्रानुकम्पामवगच्छे'ज्जन्तुः॥ सदृष्टयो वापि कुदृष्टयो वा स्वभावतो मार्दवसंप्रयुक्ताः ।
यो कुर्वते सर्वशरीरवर्ग सर्वानुकम्पेत्यभिधीयते सा ॥ छिन्नान् बद्धान् रुद्धान् प्रहतान् विलुप्यमानांश्च मान्, सहनसो निरैनसो वा परिदृश्य मृगान्विहगान् सरीसृपान् पशूश्च मांसादिनिमित्तं प्रहन्यमानान् परलोकः परस्परं वा तान् हिंसतो भक्षयतश्च दृष्ट्वा सूक्ष्माननेकान् कुन्थुपिपीलिकाप्रभृति प्राणभृतो मनुजकरमखरशरभकरितुरगादिभिः संमृद्यमानानभिवीक्ष्य असाध्यरोगोरगदशनात् परितप्यमानान् मृतोऽस्मि नष्टोस्म्यभिधावतेति रोगानुभूयमानान्, गुरुपुत्रकलादिभिर
होता है। पूर्व ज्ञानियोंने बन्धको तीन प्रकारसे कहा है। स्वयं करनेसे, दूसरोंसे करानेसे और दूसरोंके करने पर उसकी अनुमोदना करनेसे । अतः महागुणशाली मुनियोंको देखकर हर्ष प्रकट करनेसे महान् पुण्यास्रव होता है।
अब मिश्रानुकम्पा कहते हैं। जो महान् पाप कर्मके मूल हिंसा आदिसे निवृत्त हैं, सन्तोष और वैराग्यमें तत्पर हैं, विनीत हैं, दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्डविरतिको धारण किये हुए हैं, तीव्र दोषवाले भोग उपभोगोंका त्याग करके शेष भोगोंका जिन्होंने परिमाण कर लिया है, जिनका चित्त पापसे भीत रहता है, जो विशिष्ट देश और कालमें सर्व सावद्यका त्याग करते हैं अर्थात् त्रिकाल सामायिक करते हैं, पर्वके दिनोंमें समस्त आरम्भको त्याग उपवास करते हैं उन संयमासंयमियोंमें जो अनुकम्पा की जाती है वह मिश्रानुकम्पा है। मैं जिलाता हूं ऐसा मान जो जीवोंपर दया तो करते हैं किन्तु पूर्णरूपसे दयाको नहीं जानते। ऐसे जो जिनागमसे बाह्य अन्य धर्मोको माननेवाले विनयी तपस्वी हैं कष्टदायक तपस्या करते हैं उनमें अनुकम्पा भी मिश्रानुकम्पा है । उससे सब जीव पुण्य कर्मका संचय करते हैं । कहा भी है
गृहस्थ एकदेशमें प्रवृत्तिशील होनेसे पूर्ण संयमका पालक नहीं होता। तथा मिथ्यात्वके दोषसे सदोष अन्य धर्मवालोंमें अनुकम्पा मिश्रानुकम्पा है। सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जो स्वभावसे ही मार्दव भावसे युक्त हैं वे जो समस्त प्राणियोंमें अनुकम्पा करते हैं उसे सर्वानुकम्पा कहते हैं। जिनके अवयव कट गये हैं, जो बांधे गये हैं, रोके गये हैं, पीटे गये हैं, खोये गये हैं ऐसे निरपराधी अथवा अपराधी मनुष्योंको देखकर तथा मृगों, पक्षियों, सरीसृपों और पशुओंको मांस के लिये दूसरे लोगोंके द्वारा मारा जाता अथवा उन्हें परस्परमें ही एक दूसरेकी हिंसा करते और एक दूसरेका भक्षण करते देखकर, तथा कुंथु चोंटी आदि अनेक छोटे जन्तुओंको मनुष्य, ऊँट, गधा, शरभ, हाथी, घोड़े आदिके द्वारा कुचले जाते देखकर, तथा असाध्य रोगरूपी सर्पके द्वारा
१. 'पासवगच्छतज अ० ।
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