________________
८१६
भगवती आराधना प्राप्तकालः सहसा वियुज्य ऊर्ध्वभुजान् विक्रोशतः, स्वाङ्गानि ध्नतश्च शोकेन, उपार्जितद्रविणर्वियुज्यमानान् कृपणान् प्रनष्टबन्धून् धैर्यशिल्पविद्याव्यवसायहीनान् या'न् प्रज्ञाप्रशक्त्या वराकान् निरीक्ष्य तद् दुःखमात्मस्थमिव विचिन्त्य स्वास्थ्यमुपशमनमनुकम्पाः । . . . सुदुर्लभं मानुषजन्म लब्ध्वा मा क्लेशपात्राणि वृथैव भूता
ते यतध्वमित्येवमायरपि चोपदेशः । कृतकरिष्यमाणोपकारानपेक्षरनुकम्पा कृता भवति । .
पुण्यासवं सा त्रिविधानुकम्पा सुतेषु पुत्रं जननी शुभेव ।
श्वेतानुकम्पा प्रभवाद्विपुण्यान्नाके मृता अभ्युपपत्तिमीयुः ।। शुद्धप्रयोगो निरूप्यते स च द्विप्रकार: यतिगृहिगोचरभेदेन । यतेः शुद्धोपयोग इत्यन्भूत :----
जीवान हन्यां न मृषा वदेयं चौयं न कुर्यान्त भजेय भोगान् । धनं न सेवेय न च सपासु भुक्षीय कुच्छेऽपि शरीरतापे ॥१॥ रोषेण मानेन च मायया च लोभेन चाहं बहदोषकेन । युञ्जय नारम्भपरिग्रहच बोशा शुभामभ्युपगम्य भूयः ॥२॥ यथा न भायान्चलमौलिमालो भिक्षां चरन्काम कबाणपाणिः । तथा न भायां यवि दीक्षितः मन् वहेय दोषानवहाय लज्जाम् ॥३॥
wwmvwwwwwwwwwww
डसे जानेसे पीड़ित मैं मर गया, मैं नष्ट हो गया इत्यादि चिल्लानेवाले रोगियोंको देख तथा जिनकी अवस्था अभी मरनेकी नहीं है ऐसे गुरु, पुत्र, स्त्री आदिका सहसा वियोग हो जानेसे चिल्लाते हुए, अपने अंगोंको शोकसे पीटते हुए, कमाये हुए धनके नष्ट हो जानेसे दीन हए तथा धैर्य, शिल्प, विद्या और व्यवसायसे रहित गरीब प्राणियोंको देख उनके दुःखको अपना ही दुःख मानकर उसको शान्त करना अनुकम्पा है । 'अति दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर वृथा ही क्लेशके पात्र मत बनो। प्राणियोंके लिये कल्याणकारी धर्ममें मन लगाओ' इत्यादि उपदेशोंके द्वारा किये गये अथवा भविष्यमें किये जानेवाले उपकारकी अपेक्षाके बिना अनुकम्पा करना चाहिये ।
ये तीनों प्रकारको अनुकम्पा पुण्य कर्मका आस्रव करती है। वह जैसे माता पुत्रके लिये शुभ होती है उसी प्रकार शुभ है। उस अनुकम्पासे हुए पुण्यके विपाकसे मरकर स्वर्गमें देव होते हैं। ... अब शुद्ध प्रयोगका स्वरूप कहते हैं--उसके दो भेद है-एक यति सम्बन्धी शुद्धसंप्रयोग और दूसरा गृहस्थ सम्बन्धी शुद्ध संप्रयोग। यतिका शुद्ध प्रयोग इस प्रकार है-मैं जीवोंका घात नहीं करूँगा । झूठ नहीं बोलूंगा। चोरी नहीं करूंगा। भोगोंको नहीं भोगूंगा। धनका सेवन नहीं करूंगा। शरीरमें अत्यन्त कष्ट होनेपर भी रात्रि भोजन नहीं करूंगा। शुभ दीक्षा लेकर बहुदोषपूर्ण क्रोध माना माया लोभसे आरम्भ और परिग्रहसे सम्बन्ध नहीं रखूगा । जैसे कोई मनुष्य सिरपर मुकुटमाला धारण करके और हाथमें धनुष बाण लेकर भिक्षा मांगे तो शोभा नहीं देता। उसी प्रकार यदि में दीक्षा लेकर लज्जा त्याग दोषोंको वहन करू तो शोभा नहीं देता। महान्
१. यं वा प्रजा प्रसत्तापकरं नि-अ०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org