________________
८११
विजयोदया टोका 'अविरमणं' अविरमणं नाम । “हिंसादि पंच वि दोसा' हिंसानतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाख्याः पञ्चापि दोषाः । 'हवंति णादव्वा' अविरमणं भवन्तीति ज्ञातव्याः । प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं, असदभिधानं, अदत्तादानं, मैथुनकर्म विशेषः, मूर्छा चेति एते परिणामा अविरमणशब्देनोच्यन्ते । विरमणं हि निवृत्तिस्ततोऽन्यत्वात् । प्रवृत्तिरूपा हिंसादय: अविरमणं इत्युच्यते । 'कोधादीगा' क्रोधमानमायालोभाः । 'चत्तारि' चत्वारः । 'कसाया' कषाया इत्युच्यन्ते । 'रागदोसमया' रागद्वेषात्मकाः ॥१८२०॥ रागद्वषयोर्माहात्म्यं दर्शयति
किंहदा राओ रंजेदि णरं कुणिमे वि जाणुगं देहे ।
किहदा दोसो वेसं खणेण णीयंपि कुणइ णरं ॥१८२१।। 'किहदा राओ रंजेदि गर' कथं तावद्रागो रञ्जयति नरं । 'कुणिमे वि देहे' अशुचावपि देहे, अनुरागस्यायोग्ये । 'जाणुगं' शरीराशुचित्वं जानन्तं अज्ञं रंजयति । सारे वस्तुनि नरं रञ्जयतीति न तच्चित्रं ज्ञातारमशुचिन्यसारे शरीरे रञ्जयतीत्येतदद्भुतमिति भावः । 'दोसो' दोषः, 'किहवा वेसं कुणदि' कथं तावद्वेष्यं करोति । 'खणेण' क्षणमात्रेण । 'णीयंपि परं' बान्धवमपि नरं। अनेनापि द्वेषमाहात्म्यमाख्यायते । रागाश्रयानपि बंधून् द्वष्यान् करोतीति ।।१८२१॥
सम्मादिट्ठी वि गरो जेसिं दोंसेण कुणइ पावाणि ।
धित्तेसि गारविंदियसण्णामयरागदोसाणं ॥१८२२।। 'सम्मादिट्ठी वि गरों' तत्त्वज्ञानश्रद्धानसमन्वितोऽपि नरः । 'बेसि दोसेण कुणदि पावाणि' येषा दोषेण करोति पापानि । “वित्तेसिं गारवें दियसण्णामपरागदोसाणं' धिक्तान्गौरवानिन्द्रियाणि संज्ञामदान रागद्वषांश्च ॥१८२२।।
असंयमका स्वरूप कहते हैं
गा०-हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पांच दोषोंको असंयम कहते हैं ! कषाययुक्त आत्मपरिणामके योगसे प्राणोंके घातको हिंसा कहते हैं। प्राणि पीड़ाकारक अप्रशस्त वचन बोलनेको असत्य कहते हैं। बिना दी हुई वस्तुके ग्रहणको चोरी कहते हैं। मैथुन कर्मको अब्रह्म कहते हैं और ममत्व भावको परिग्रह कहते हैं। ये सब परिणाम असंयम कहे जाते हैं। इन सबसे निवृत्तिको संयम कहते हैं । और प्रवृत्तिरूप हिंसादि परिणाम असंयम हैं। तथा राग-द्वेषमय चार कषाय हैं। अर्थात् हिंसादिरूप परिणाम असंयम हैं और क्रोधादि कषाय हैं इनमेंसे क्रोध और मान द्वषरूप हैं और माया, लोभ रागरूप हैं ॥१८२०॥
राग और द्वषका माहात्म्य बतलाते हैं
गा०-टोoयह शरीर अशुचि है। रागके अयोग्य है। यह राग शरीरकी अशुचिताको जाननेवाले अज्ञानीको उसमें अनुरक्त करता है सारवान् वस्तुमें मनुष्यको अनुरक्त नहीं करता। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य इसमें है कि यह जाननेवालेको भी असार शरीरमें अनुरक्त करता है। तथा द्वेष क्षणमात्रमें बन्धु मनुष्यको भी द्वषका पात्र बनाता है। इससे दुषका माहात्म्य कहते हैं कि जो बन्धु राग करने योग्य हैं उन्हें भी वह द्वषका पात्र बनाता है ॥१८२१॥
गा०-तत्त्वोंके ज्ञान और श्रद्धानसे युक्त मनुष्य भी अर्थात् सम्यग्दृष्टी मनुष्य भी जिनके १०२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org