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भगवती आराधना जो अभिलासो विसएसु तेण ण य पावए सुहं पुरिसो ।
पावदि य कम्मबंधं पुरिसो विसयाभिलासेण ।।१८२३॥ 'जो अभिलासो विसएसु' यो अभिलाषो विषयेषु स्पर्शादिषु । तेण विषयाभिलाषेण ण य पावदे सुहं पुरिसो' प्राप्नोति नैव सुखं पुरुषः । 'पावदि य कम्मबंधं प्राप्नोति च कर्मबन्धं, 'पुरिसो विसयाभिलासेण' पुरुषो विषयाभिलाषेण निमित्तेन । एतेन विषयाभिलाषपरिणामस्य प्राणिनामसकृत प्रवर्तमानस्याहितता निवेदिता, सुखं न प्रयच्छति कर्मबन्धकारणं तु भवतीति विषयाभिलाषस्यास्रवस्य स्वरूपं कथितं ॥१८२३॥ विषयाभिलाषस्य दुष्टतां प्रकारान्तरेणाचष्टे--
कोई डहिज्ज जह चंदणं णरो दारुगं च बहुमोल्लं ।
णासेइ मणुस्सभवं पुरिसो तह विसयलोहेण ॥१८२४।। 'कोई डहिज्ज जह चंदणं" कश्चिद्यथा दहेच्चन्दनं । 'बहुमोल्लं' महामूल्यं । 'दारुगं च' अगुर्वादिदारु च, यथा दहति भस्मादिकं स्वल्पं समुद्दिश्य । 'तहा णादि मणुस्सभवं' तथा नाशयति मानुषभवं अतीन्द्रियानन्तसुखकारणं । 'पुरिसो तह विसयलोभेण' अतितुच्छविषयगायन ।।१८२४॥ उक्तं च
विषया जनितेन्द्रियोत्सवा बहुभिश्चापि समन्विता रसैः।
विषगर्भसुसंस्कृतान्नवत् परिभुक्ताः परिणामदारुणाः ॥ .' विषयसुखप्रतिबद्धलोलचित्तो विषयनिमित्तमनिष्टकर्म कृत्वा ।
विषयसुखप्रविहीणजातिजातो विषयसुखं लभते नाना विपुण्यः ॥
दोषसे पाप करता है उन गारवोंको, इन्द्रियोंको, संज्ञामदोंको और राग द्वषको धिक्कार हो ॥१८२२।।
'गा.-विषयों में जो अभिलाषा है उसके कारण पुरुष सुख नहीं पाता विषयोंकी चाहके निमित्तसे पुरुष कर्मबन्ध करता है ॥१८२३।।
___ टी०-इससे प्राणियोंमें निरन्तर प्रवर्तमान विषयोंकी चाहरूप परिणामको अहितकारी बतलाया है। उससे सुख तो नहीं होता, किन्तु कर्मबन्ध होता है। अतः विषयोंकी अभिलाषाको आस्रवरूप कहा है ॥१८२३॥.
गा०-टो-अन्य प्रकारसे विषयोंकी अभिलाषाकी दुष्टता बतलाते हैं जैसे कोई मनुष्य राख आदिके लिये बहुमूल्य चन्दनकी लकड़ीको जला देता है। वैसे ही मनुष्य अति तुच्छ विषयोंके लोभसे उस मनुष्य भवको नष्ट कर देता है जिसके द्वारा अतीन्द्रिय अनन्त सुख प्राप्त हो सकता है । कहा भी है-ये विषय इन्द्रियोंके लिये आनन्द उत्पन्न करते हैं तो बहुतसे रस उन विषयोंमें रहते हैं। किन्तु विषसे संस्कार किये गये अन्नकी तरह उनको भोगनेपर अत्यन्त भयंकर परिणाम होता है। जिसका चंचल चित्त विषय सुखमें अत्यासक्त होता है वह विषयोंकी प्राप्तिके लिये अनिष्ट कार्य करके ऐसी पर्यायमें जन्म लेता है जहाँ उसे विषयसुख मिलता ही नहीं । ठीक ही है, पुण्यहीन मनुष्य विषयसुखको नहीं पाता ॥१८२४।।
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