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विजयोदया टोका
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नामधेयः । 'सकम्मेहि' आत्मीयः कर्मभिः । 'जादो' उत्पन्नः । क्व 'निययभारियागन्भे' निजभार्यागर्थे । 'जादिभरो जादो' जातिस्मरश्च जातः ।।१८००।।
होऊण बंभणो सोत्तिओ खु पावं करित्तु माणेण ।
सुणगो व सूगरो वा पाणो वा होइ परलोए ॥१८०१।। 'होऊण बंभणो सोत्तिओ' श्रोत्रियो ब्राह्मणो भूत्वा । 'माणेण' जातिमदेन । गुणिजननिन्दावमानाभ्यां 'पापं करित्तु' पापं कृत्वा नोचैर्गोत्रमुपचित्य । 'सुणगो व सगरो वा पाणो वा होवि परलोए' श्वा शंकरश्चाण्डालो वा भवति परजन्मनि ।।१८०१॥
दारिद्द अड्ढित्तं जिंदं च थुदिं च वसणमब्भुदयं ।
पावदि बहुसो जीवो पुरिसित्थिणqसयत्तं च ।।१८०२।। 'दारिद' दारिद्रयं । 'बहुसो जीवो पावदि' बहुशः जीवः प्राप्नोति लाभान्तरायोदयात् । 'अड्ढित्तं' आयतां पूर्ववदेव सम्बन्धः । 'पावदि बहसो इमो' इत्यनेन । लाभान्तरायक्षयोपशमादीप्सितानि द्रव्याणि लभते, लब्धानि च नश्यन्ति ततः आढयतां । निंदा' श्वपाकश्चण्डाल: कुणः काणो दुर्भगो मूर्खः कृपण इत्यादिकां । 'दि च' स्तुति च कुलीनो रूपवान् वाग्मी आढयः प्राज्ञ इत्यादिका यशस्कोर्तेरुदयात् । 'एवं धसणं' दुःखं असāद्योदयात् । 'अभदयं' देवमनुजभवजं सुखं सद्वे द्योदयात् । 'पुरिसिस्थिण(सयत्तं च' पुरुषत्वं च स्त्रीत्वं च नपुंसकत्वं च बहुशः प्राप्नोति ॥१८०२॥
कारी होइ अकारी अप्पडिभोगो जणो हु लोगम्मि ।
कारी वि जणसमक्खं होइ अकारी सपडिभोगो ॥१८०३।। 'अकारी अपि' दोषमकुर्वन्नपि कारी भवति, 'अप्पडिभोगो जनो' पुण्यरहितो जनः । 'कारीजि हुर्दअपने सेवक बंकके द्वारा मारा गया और मरकर अपनी पत्नी विमलाके गर्भसे उत्पन्न हुआ। उत्पन्न होनेपर उसे पूर्वजन्मका स्मरण हो आया ।।१८००॥
विशेषार्थ-वृहत्कथाकोशमें १५३वें नम्बर पर इसकी कथा है ।
गा०-श्रोत्रिय ब्राह्मण होकर यह जीव अपनी जातिका अभिमान करके गुणी जनोंकी निन्दा और अपमानके द्वारा नीच गोत्रका बन्ध करता है और मरकर परलोकमें कुत्ता, सूकर या चण्डाल होता है ।।१८०१॥
गा० टी०-यह जीव लाभान्तरायका उदय होनेसे अनेक बार दरिद्र अवस्था पाता है। लाभान्तरायका क्षयोपशम होनेसे अनेक बार इच्छित धन पाता है। इस प्रकार अनेक बार धनीसे दरिद्र और दरिद्रसे धनी होता है। अयशकीर्तिका उदय होनेसे चण्डाल, काना, अभागा, मूर्ख, कंजूस आदि निन्दाका पात्र होता है। यशःकीर्तिका उदय होनेसे कुलीन, रूपवान, धनी, पण्डित इत्यादि स्तुतिका पात्र होता है । असातावेदनीयका उदय होनेसे दुःख उठाता है और सातावेदनीयका उदय होनेसे देव और मनुष्य भवका सुख भोगता है। इसी प्रकार अनेक बार स्त्री, पुरुष और नपुंसक होता है ।।१८०२॥
गा-पुण्यहीन मनुष्य लोकमें दोष नहीं करनेपर भी दोषका भागी होता है। और पुण्यवान अनाचार करके भी लोगोंके सन्मुख दुराचारी सिद्ध नहीं होता ।।१८०३।।
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