________________
विजयोदया टीका
८०३
रोगजराविकलत्वविहीनास्तत्र पुनश्च भवम्मनुजानाम् । तत्सहितं प्रसमीक्ष्य पुरस्तात् प्राप्यमवश्यमतश्च्यतमात्रे ॥ अन्यवशादवशा विलपन्तो देशमिवान्यमुपद्रवयुक्तं । संप्रतिपत्सव उग्रभयं ते शोकवशा बहुशोऽपि भवन्ति । यत्सुरसौख्यमवाप्य विमाने भूतरुजो जगतीरपि यान्ति । तत्परिचिन्तयता कुशलानां केन सुरेषु भवेदबहमानं ॥ तेऽवधिना विधिना बहुतत्त्वं दूरगतान्यपि जानत एव । तेन भयान्यनुभूय पुरस्तावश्नुवते 'भयकृद्यदपश्चात् ॥ यः सहसा भयमभ्युपयाति पूर्वतरं न भयं स उपैति । प्राग्विदितात्मवधस्तु नरः प्राक् प्राप्य भयं वधमेति हि पश्चात् ॥ अतो न सौख्यं तदिहास्ति किंचन विमश्यमानं मनसा भवाणंवे । सुखे प्रसंक्तो विपुले पुमानयं भजेत दुःखेन विनाणुनापि यत् ॥ यथाणुकेशोपहतेऽपि भोजने न तं नरो रोचयते कुलोदितः। तथाल्पदोषेऽप्यसुखे सुखे सति न तद्बुधो रोचय कदाचन ॥ प्रपोयमानेऽम्बुनि पातितो यथा लवोऽपि मूत्रस्य तदंबु दूषयेत् । तथा लवांशोऽप्यसुखस्य सत्सुखे करोति सर्वस्य सुखस्य दूषणं ॥
किन्तु मनुष्यगतिमें तो सतत श्वास लेना होता है। हा, जन्मरूपी समुद्रका वास भयकारक है। यहाँ देवगतिमें तो रोग, बुढ़ापा आदि नहीं है । किन्तु मनुष्योंमें तो ये सब हैं। यहाँसे च्युत होने पर ये सब अवश्य प्राप्त होंगे। ऐसा देख वे देव दःखी होते हैं। जैसे कोई परवश होकर उपदनसे युक्त अन्य देशमें जानेपर विलाप करता है वैसे ही देव स्वाधीन होते हुए भी परवश होकर देवगतिसे मनुष्यगतिमें जानेका बहुत शोक करते हैं। स्वर्गके विमानोंमें देवोंका सुख प्राप्त करके भी जीवोंको पुनः इसी मनुष्यलोकमें जन्म लेना होता है ऐसा विचार करनेवाले वुद्धिमानोंको देवोंके प्रति बहुमान कैसे हो सकता है। वे देव अवधिज्ञानके द्वारा दूरवर्ती तत्त्वोंको भी जानते ही हैं। इससे पहले ही भयका अनुभव करते हैं।
जो भय अचानक उपस्थित होता है उसका भय पहले से नहीं होता। किन्तु जिस मनुष्यको पहलेसे यह ज्ञात हो जाता है कि मेरा वध होगा वह पहले भयभीत होता है, पीछे मारा जाता है । अर्थात् मनुष्यगतिमें तो मृत्युका बोध पहलेसे नहीं होता। किन्तु देवगतिमें तो मृत्युसे छह मास पूर्व माला मुरझा जाती है। अतः मत्य पीछे होती है और उसका भय पहले आ जाता है। अतः विचार करनेपर इस संसाररूपी समुद्र में कुछ भी सुख नहीं है। बहुत सुखमें आसक्त मनुष्य भी एक परमाणु प्रमाण दुःखके बिना सुख नहीं भोग सकता । अर्थात् संसारके सुखमें दुःखका मिश्रण रहता ही है। जैसे कुलीन मनुष्यको यदि भोजनमें जरा सा भी बाल आदि गिर जाये तो भोजन नहीं रुचता उसी प्रकार ज्ञानीको बहतसे सुखमें थोड़ा सा भी दुःख मिला हो तो वह सुख नहीं रुचता। जैसे पीनेके पानीमें मूत्रकी एक बूंद भी गिरनेपर वह पानी दूषित
१. भय मप्यय पश्चात् -आ० । २. पुमानयं -आ० मु०। ३. दोपोऽय-अ० मु० । ४. प्रदीपमाने -अ० प्रा०।
१०१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org