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भगवती आराधना संपूर्याशाः स्वसुरभिगन्धैर्वाग्नि मृष्ट: शुभकुसुमेश्व । संतानाविरचितमाला नित्याम्लानाः परिवहमानाः ।। माल्यर्गन्धैः सुखुमनुलिप्ता वष्र्वस्त्राण्यतिविरजांसि । रंरम्यंते रतिनिपुणाभिस्स्वाभिः साढे वरवनिताभिः । सुखेनैवं जीवन्तो यान्ति वियोगकृतं परितापं । तत्र महद्धियुता अपि देवाः स्त्रीपुरुषा विषमायुष एव ॥ प्राणभूतामिह मध्यमलोकः तीव्रतरादिकषायचतुष्कं । स्यात्सुरसंततयः समकालाः, तन्न भवंति हि कर्मवशेन ॥ अब्ध्युपमानितजीवितदेवे, स्त्री चिरजीवितवत्यपि तस्याः । पल्यमितं बत जीवितकालं तेन वियोगमितः सुरलोकः॥ .. मृत्युकृतं च विचिन्त्य सदुःखं भावि सराः परिभीतमनस्काः। तत्र भजन्ति मगा इव बद्धा व्याघ्रसमीपमपेत्य सभीकाः॥ गर्भकृतामपि ते दुरवस्था संपरिचिन्त्य पुनः समवाप्य । शोकभये विपुले परियान्ति चारकरोष इवाभ्युपयाते ॥ मूत्रपथावशुचेरतिदुःख निर्गमनं स्मरतां च शुचीनां । जन्मतयेति भयं दिविजाना, स्यावधिकं तववाप्य सख तत् ॥ तानपि चासु पतेत् क्षुदनिष्टा पश्यत सर्पवधूरिव कष्टा। वर्षसहस्रमितीह गतेऽपि कालदरो न जहात्यहाँमद्रं ।। उच्छ्वसनं श्रमजं नृपतेपि पक्षमितेविसंयवि यान्ति ।
कान्यसुरेषु कथा बत लोके ही सभयो जननार्णववासः ॥ सुन्दर फूलोंसे रचित माला धारण करते हैं जो कभी मुरझाती नहीं है ।। सुखपूर्वक माला और गन्धसे विलिप्त वे देव अत्यन्त स्वच्छ वस्त्र धारण करते हैं और रतिमें निपुण अपनी देवांगनाओंके साथ रमण करते हैं । इस प्रकार सुखपूर्वक जीवन यापन करते हुए वियोगजन्य सन्तापको सहते हैं। क्योंकि स्वर्गोंमें महद्धिक भी देव-देवांगना समान आयुवाले नहीं होते। आगे-पीछे मरते हैं । मध्यलोकसे यहाँके प्राणियोंकी कषाय तीव्रतर होती है। अतः कर्मवश देव-देवांगनाओंकी आयु समान नहीं होती ॥ देवको आयु सागरप्रमाण होती है और देवांगना चिरकाल तक भी जीवित रहे तो उसकी आयु पल्यप्रमाण ही होती है इसलिये देवलोकमें वियोगजन्य सन्ताप होता है । भविष्यमें होनेवाले मृत्यु जन्य दुःखका विचार करके देव डर जाते हैं और वहाँ ऐसे भयभीत रहते हैं जैसे व्याघ्रके समीपमें बांधे गये मृग । स्वर्गलोकसे च्युत होनेपर गर्भमें होनेवाली दुरवस्थाका भी विचार करके वे महान् शोक और भयसे युक्त होते हैं जैसे कोई जेलखानेसे डरता है। पवित्र देवोंको देवलोकमें जितना सुख होता है उससे भी अधिक भय स्त्रीके अपवित्र मूत्रमार्गसे जन्म लेनेका स्मरण करके जन्मसे ही होता है। यहाँ स्वर्गमें तो हजार वर्ष बीतनेपर भी भूख नहीं सताती थी। किन्तु मनुष्य पर्यायमें जन्म लेनेपर सर्पिणीकी तरह भूख सताती है, यह भय अहमिन्द्रदेवको भी नहीं छोड़ता । स्वर्गमें तो पन्द्रह दिनमें एक बार श्वास लेनेका श्रम उठाना होता
१. मृष्ट -आ० मु० । २, मा वस्त्राव -अ० । ३. तत्र सुखतोऽपि यांति -आ० ।
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