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विजयोदया टीका
तत्र ययोः शुक्रशोणितमयमाश्रितोऽशुचितमं तौ पितराविति संकल्पयति । तथाभूतयोरेव शुक्रशोणितयोरुपात्तदेहा भ्रातर इति । 'अन्ये त एवंभूताश्च स्वजनिनोतिसुलभाः। कांतारे पक्षिणां निवासवृक्षा इवेति . भावः ॥१७५२॥
पहिया उवासये जह तहिं तहिं अल्लियंति ते य पुणो।
छंडित्ता जंति णरा तह णीयसमागमा सव्वे ।।१७५३।। 'पहिया' पथिकाः । 'उवासये' उपाश्रये कस्मिश्चित् । 'जह' यथा । 'तहि तहिं' तस्मिस्तस्मिन् ग्रामनगरादौ । 'अल्लियंति' अन्योन्यं ढौकन्ते । 'ते य' ते च संगता:पथिकाः। 'पुणो' पश्चात् । 'छंडित्ता' त्यक्त्वा । 'जंति' यांति स्वाभिमतं देशं । 'तह णीयसमागमा सम्व' तथा बन्धुसमागमाः सर्वेपि च । एतेन बन्धुसमागमस्यानित्यता व्याख्याता ॥१७५३॥
भिण्णपयडिम्मि लोए को कस्स सभावदो पिओ होज्ज ।
कज्जं पडि संबंधं वालुयमुट्ठीव जगमिणमो ॥१७५४।। 'भिण्णपयडिम्मि लोगे' नानास्वभावे लोके । 'को कस्स सभावदो पिओ होज्ज' क: कस्य स्वभावेन प्रियो भवेत् । समानशीलतायां हि सख्यं भवति । न च सर्वबन्धवः समानशीलाः कथं तर्हि तेषां वा स बान्धवः । 'कज्जं पडि संबंधों' कार्यमेवोद्दिश्य सम्बन्धः नासति कार्यऽस्ति सम्बन्धः । 'वालुगमुट्ठीव' बालुकामुष्टिरिव । 'जगमिणमो' लोकोयं । यथा बालकानां भिन्नप्रकृतीनां द्रवद्रव्यमंतरेण न स्वाभाविकः सम्बन्धो येन संगता मुष्टिमुपेयुः । उदकादिद्रव्योपनीतैव संगतिस्तासां, एवं कार्योंपनीतव संगतिः स्वजनानां ॥१७५४॥
गल जाते हैं, और वे पूर्व शरीरको छोड़ नवीन शरीर ग्रहण करना चाहते हैं, तो वे शरीर ग्रहण करनेके योग्य देशमें, जिसे योनि कहते हैं, जाते हैं। वहां उन्हें जिनके अत्यन्त अपवित्र रजवीर्य रूपका आश्रय प्राप्त होता है उन दोनोंमें माता-पिताका संकल्प करते हैं । उसी प्रकारके रजवीर्यसे जिनके शरीर बनते हैं वे भाई होते हैं। वनमें पक्षियोंके रहनेके वृक्षोंकी तरह इस प्रकारके स्वजनवास सुलभ हैं । यह उक्त गाथाका अभिप्राय है ।।१७५२।।
गा०-जैसे किसी उपाश्रयमें पथिक विभिन्न ग्राम नगर आदिमें परस्परमें मिलते हैं । पीछे वे सब उस उपाश्रयको छोड़कर अपने-अपने देशको चले जाते हैं । उसी प्रकार सब बन्धु-बान्धवोंका समागम है । इससे बन्धुसमागमको भी अनित्य कहा है ॥१७५३।।
गाo-ट्री०-लोगोंके अलग-अलग स्वभाव होते हैं । ऐसे नाना स्वभाववाले लोकमें कौन किसको स्वभावसे प्रिय हो सकता है। समानशील वालोंमें ही मित्रता होती है । किन्तु सब बन्धुबान्धव तो समान शीलवाले नहीं होते। तब कैसे वह उनका बन्धु हो सकता है। कार्यको लेकर ही सम्बन्ध होता है। कार्यके न रहनेपर सम्बन्ध नहीं रहता। जैसे रेतका प्रत्येक कण अपना भिन्न स्वभाव रखता है। किसी मिलानेवाले द्रव्यके बिना उनका परस्परमें कोई स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है। पानी आदिके सम्बन्धसे हो वे परस्परमें मिलते हैं। अन्यथा मुट्ठीमें अलग-अलग ही रहते हैं । इसी प्रकार स्वजन भी कार्यवश ही परस्परमें मिलते हैं ।।१७५४||
१. अन्यत ए-आ० ।
२. स्वजातयोति -आ० ।
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