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शत्रु मित्रयोर्लक्षणमाचष्टे
भगवती आराधना
जो जस्स वट्टदि हिदे पुरिसो सो तस्स बंधवो होदि ।
जो जस कुणदि अहिदं सो तस्स रिवृत्ति णायव्वो । १७५८ ॥
'जो जस्स वट्टदि हिवे' यो यस्य उपकारे वर्तते । 'पुरिसो' पुरुषः । 'सो तस्स बंधवो होवि' स तस्य बन्धुर्भवति । 'जो जस कुणवि अहिवं' यो यस्य करोत्यहितं । 'सो तस्स रिउत्ति णायवो' स तस्य रिपुरिति
ज्ञातव्यः ।।१७५८ ।।
शत्रुलक्षणं बन्धुषु
दर्शयति
या करंति विग्धं मोक्खन्भुदयावहस्स धम्मस्स |
कारंतिय अइबहुगं असंजम तिव्वदुक्खकरं ।। १७५९॥
'णीया करंति विग्धं' बन्धवः कुर्वन्ति विघ्नं । कस्य ? 'धम्मस्स' धर्मस्य, 'कीदृश:' ? मोक्खन्भुदयावहस्स' निरवशेषदुःखकारिकर्मापायं सांसारिकमतिशयवत् सुखं च संप्रादयतो रत्नत्रयस्य । 'कारंति य' कारयन्ति च । किं ? ‘असंयम' हिसानृतस्तेयादिकं, 'अदिबहुगं' अतीव महान्तं । 'तिब्वदुक्खकरं दुःसहनरकादिदुःखोत्थापनोद्यतं । हितस्य विघ्नकरणादहिते च प्रवर्तनात् दर्शिता शत्रुता बन्धूनामेंतेन । अन्येषां बान्धवाद्यभिमतानां शत्रुत्वेनानुप्रेक्षणं अन्यत्वानुप्रेक्षेति कथितं भवति ॥१७५९॥
इदानीमन्यशब्देन साधवो भण्यंते तेषामुपकारकत्वरूपेणानु प्रेक्षेति चेतसि कृत्वा व्याचष्टे
या सत्तू पुरिसस्स हुंति जदिधम्मविग्धकरणेण । कारेंति य अतिबहुगं असंजमं तिव्वदुःखयरं ॥१७६०॥
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शत्रु और मित्रका लक्षण कहते हैं
गा०
- जो पुरुष जिसका उपकार करता है वह उसका बान्धव होता है । और जो जिसका अहित करता है वह उसका शत्रु होता है । यह मित्र और शत्रुका लक्षण जानना || १७५८ ||
आगे बन्धुओं में शत्रुका लक्षण दिखलाते हैं
गा० - टी० - बन्धुगण दुःख देनेवाले सब कर्मोंका पूर्णरूपसे विनाश और संसारका सातिशय दुःख देनेवाले रत्नत्रयरूप धर्ममें विघ्न करते हैं । और दुःसह नरकादिके दुःखोंको लाने में तत्पर हिंसा, झूठ, चोरी आदि असंयम कराते हैं । अर्थात् यदि कोई जिनदीक्षा आदि लेकर आत्मकल्याणमें लगना चाहता है तो परिवारके लोग उसे रोकते हैं तथा अपने पोषणके लिये मनुष्यको बुरे कर्म करनेकी प्रेरणा करते हैं । तो हितसाधनमें विघ्न करनेसे और अहितमें लगानेसे बन्धु शत्रु हैं, यह इससे दिखलाया है। इसका अभिप्राय यह है कि जो अन्य बान्धव आदि रूपसे इष्ट हैं उन्हें भी शत्रु रूप से विचारना कि ये मेरे मित्र नहीं हैं, शत्रु हैं, अन्यत्वानुप्रेक्षा है ।। १७५९ ।।
अब अन्य शब्दसे साधुओं को लेते हैं । उन्हें उपकारी रूपसे विचारना अन्यत्वानुप्रेक्षा है, यह कहते हैं
गा०-- पुरुषके यति धर्म स्वीकार करनेमें विघ्न करनेसे बन्धुगण शत्रु होते हैं तथा वे
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