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विजयोदया टीका
७८७ जीवस्येत्यनन्तकायः । अन्तरेणापि भावप्रधानो निर्देशः । तेनायमर्थः अनन्तकायत्वस्य प्रवेशः अनन्तकायप्रवेशः स पातालं यस्य तं । 'चदुपरिवट्टावत्तं' चत्वारः द्रव्यक्षेत्रकालभावाख्याः परिवर्ताः आवर्ता यस्मिस्तं । 'चदुगदिबहुपट्टणं' चतस्रो गतयो बहूनि महान्ति पत्तनानि यस्मिस्तं । 'अणंतं' अनन्तं ॥१७६४॥
हिंसादिदोसमगरादिसावदं दुविहजीवबहुमच्छं ।
जाइजरामरणोदयमणेयजादीसदुम्मीयं ॥१७६५॥ _ हिंसादिदोसमगरादिसावदं' हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहा हिंसादिदोषास्ते मकरादयः श्वापदा यस्मिस्तं । 'दुविहजीवबहुमच्छ' द्विविधाःस्थावरजंगमविकल्पा जीवा इति द्विविधा जीवास्ते बहवो मत्स्या यस्मिस्तं । 'जादिजरामरणोदयं' जातिरभिनवशरीरग्रहां, जरा नाम गृहीतस्थ शरीरस्य तेजोबलादिभिरूनता, मरणं शरीरादपगमः एतानि जातिजरामरणानि उदयं उद्गतिर्यस्मिस्तं । 'अणेयजादीसुदुम्मीगं' अनेकानि जातिशतानि ऊर्मयो यस्मिस्तं । एकद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियजातयः प्रत्येकमवान्तरभेदापेक्षया पृथिवीकायिका, अप्कायिकास्तेजस्कायिकवनस्पतिकायिका इति । एकेन्द्रियजातिरनेकप्रकारा । षड्दिशद्विकल्पा पृथिवी । आपोऽपि वर्षहिमहिमानीकरकादिभेदभिन्नाः । अग्निरपि प्रदीपोल्मकर्माचरित्यनेकभेदः । वायुरपि गुञ्जामण्डलिकादिविकल्पः । वनस्पतयोऽपि तरुगुल्मवल्लीलतातृणादिभेदास्ततो जातिशतानीत्युक्तं ॥१७६५॥
क्योंकि एक शरीरमें बहुतसे जीव समानरूपसे रहते हैं। वह अनन्तकाय जिस जीवकी है वह अनन्तकाय है। 'भाव प्रत्ययके बिना भी निर्देश भावप्रधान होता है' इस नियमके अनुसार अर्थ होता है अनन्त कायत्वका प्रवेश अनन्तकाय प्रवेश । वही जिसमें पाताल है । तथा द्रव्य क्षेत्र काल और भाव परिवर्तन रूप जिसमें चार भँवर हैं। और चारगतिरूप महान् द्वीप हैं तथा जो अनन्त है ॥१७६४||
विशेषार्थ-संसारको महासमुद्रकी उपमा दी है। समुद्र में जल होता है संसारमें दुःख ही जल है। जैसे जलका आरपार नहीं है वैसे ही संसारके दुःखका भी आदि अन्त नहीं है । समुद्रमें पाताल होते हैं जिनमें प्रवेश करके निकलना कठिन है। संसारमें जो अनन्तकाय निगोद हैं वही पाताल है उसमें प्रवेश करके निकलना कठिन है। समुद्र में भंवर होते है। संसारमें परिवर्तनरूप भँवर हैं । समुद्र में द्वीप होते हैं जहाँ कुछ समय ठहर सकते हैं। संसारमें चार गतियाँ ही द्वीप हैं। इसी प्रकार समुद्र भी अनन्त है और संसार भी ॥१७६४।।
गा०-टी०-उस संसाररूपी समुद्र में हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहरूपी मगर आदि क्रूर जन्तु रहते हैं। स्थावर और जंगम जीवरूप बहुतसे मच्छ हैं। जाति अर्थात् नया शरीर धारण करना, जरा अर्थात् वर्तमान शरीरके तेज बल आदिमें कमी होना, मरण अर्थात् शरीरका त्याग । ये जाति जरा और मरण उसके उठाव हैं तथा सैकड़ों जातियाँरूपी उसमें तरंगें हैं । एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये पाँच जातियाँ हैं। इसमेंसे प्रत्येकके अनेक अवान्तर भेद हैं। जैसे एकेन्द्रिय जातिके पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वनस्पतिकायिक आदि अनेक भेद हैं। उनमेंसे भी पथिवीके छत्तीस भेद हैं। जलके भी वर्षा, हिम, ओले आदि भेद हैं। आगके भी दीपक, अंगार, लपट आदि अनेक भेद हैं। वायुके भी गुंजा, माण्डलिक आदि भेद हैं। वनस्पतिके भी वृक्ष, झाड़ी, बेल, लता, तृण आदि भेद हैं। इसीसे सैकड़ों जातियाँ कही हैं ॥१७६५।।
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