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भगवती आराधना मिच्छत्तमोहिदमदी'. वस्तुयाथात्म्याश्रद्धानं दर्शनमोहोदयजं मिथ्यात्वं तेन मिथ्यात्वेन हेतुना मोहमुपगता मतिर्यस्यासौ । 'संसारमहाडवीं' संसारो महाटवी 'दुरुतरत्वादनेकदुःखावहत्वाद्विनाशयितुमुद्यतत्वाच्च तां संसारमहाटवीं । 'तवों तस्मात् मिथ्यात्वमढमतित्वात् । 'अदीवि' प्रविशति । ननु च मिथ्यात्वासंयमकषाययोगाश्चत्वारोऽपि संसारस्य निमित्तभूताः तत्र किमुच्यते मिथ्यात्वमूढमतिः संसारमहाटवीं प्रविशतीति । अत्रोच्यते-उपलक्षणं मिथ्यात्वग्रहणं असंयमादीनां । 'जिणवयणविप्पणछो' द्रव्यभावकर्मारातिजयात जिनास्तेषां वचनं जीवाद्यर्थयाथात्म्यप्रकाशनपट प्रत्यक्षादिप्रमाणांतराविरोधि ततो विप्रनष्टस्तदर्थापरिज्ञानात् यत्तत्वाश्रद्धानं तन्निरूपितेन मार्गेणानाचरणाच्च महाटवी महतीमटवीं प्रविशति । 'विप्पणठ्ठो वा' मार्गाद्विप्रनष्ट इव । 'संसारमहोदधिमविगम्म जीवपोतो भमदि' संसारमहासमुद्रं प्रविश्य जीवयानपात्रं भ्रमति । कीदृग्भूतं संसारमहोदधिं ॥१७६३॥
बहुतिव्वदुक्खसलिलं अणंतकायप्पवेसपादालं ।
चदुपरिवट्टावत्तं चदुगदिबहुपट्टमणंतं ॥१७६४।। 'बहुतिम्वदुक्खसलिलं' बहूनि तीव्राणि दुःखानि सलिलानि यस्मिन्संसारमहोदधौ तं । 'अणंतकायप्पवेस. पादालं' अनंतानां जीवानां कायः शरीरमनंतकाय अनन्तकाय प्रवेशास्ते पातालसंस्थानीया यस्य तं । अथवा न विद्यते अन्तो निश्चयोऽस्यैव जीवस्येदं शरीरमिति बहूनां साधारणत्वात् यस्मिन् काये सोऽनंतः कायोऽस्य
आगे संसार अनुप्रेक्षाका कथन करते हैं
गा० टी०-दर्शनमोहके उदयसे जो वस्तुके यथार्थस्वरूपका अश्रद्धान है उसे मिथ्यात्व कहते हैं। उस मिथ्यात्वके कारण जिसको मति मोहित है वह मिथ्यात्वसे मोहितमति होनेसे संसाररूपी महा अटवीमें प्रवेश करता है। महाअटवीके समान ही संसारको पार करना कठिन है वह अनेक दुःखोंसे भरा है तथा प्राणीका विनाश करनेवाला है इसलिये संसारको महाटवी कहा है।
शंका-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये चारों भी संसारके हेतु हैं। तब यह क्यों कहा कि मिथ्यात्वसे जिसकी मति मूढ है वह संसार महाटवीमें प्रवेश करता है।
समाधान-मिथ्यात्वका ग्रहण असंयम आदिका उपलक्षण है अतः मिथ्यात्वके ग्रहणसे असंयम आदिका ग्रहण हो जाता है। द्रव्यकर्म और भावकर्मरूपी शत्रुओंको जीतनेसे जो जिन कहे जाते हैं उनके वचन जीवादि पदार्थोंके यथार्थ स्वरूपको प्रकाशनमें दक्ष हैं तथा वे प्रत्यक्ष आदि अन्य प्रमाणोंसे अविरुद्ध हैं। उन वचनोंका अर्थ न जाननेसे जो तत्त्वोंका अश्रद्धान है उससे तथा उसमें कहे गये मार्गके अनुसार आचरण न करनेसे संसाररूपी महाअटवीमें प्रवेश करता है। तथा मार्गसे भ्रष्ट होकर जीवरूपी जहाज संसाररूपी महासमुद्र में प्रवेश करके भटकता है ।।१७६३।।
संसाररूपी महासमुद्र कैसा है, यह बतलाते हैं
गा०-टी०-जिस संसाररूपी महासमुद्र में तीव्र दुःखरूपी जल भरा है और अनन्त जीवोंके काय अर्थात् शरीरको अनन्तकाय कहते हैं। अनन्तकायमें प्रवेश ही जिस संसार समुद्र में पाताल हैं। अथवा 'यह शरीर इसी जीवका है' ऐसा अन्त अर्थात् निश्चय जहाँ नहीं वह काय अनन्त है
१. दुखात्वाद् बहुत्वा -आ० मु० । २. कायस्य प्र०, आ० ।
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