________________
विजयोदया टोका
७९१ 'जत्थ ण जादो ण मदो हवेज्ज' यत्र क्षेत्र जातो मतो वा न भवेज्जीवः । 'अणंतसो चेव' अनन्तवारान् । 'कालेतीदंमि इमो' अतीते कालेऽयं । 'ण सो पदेसो जगे अस्थि' नासौ प्रदेशो जगति विद्यते । अन्ये तु क्षेत्रपरिवर्तनं-जगति सूक्ष्मनिगोदजीवो पर्याप्तकः सर्वजघन्यप्रदेशशरीरो लोकस्याष्टमध्यप्रदेशान् स्वशरीरमध्यप्रदेशान् कृत्वोत्पन्नः, क्षुद्रभवग्रहणं जीवित्वा मृतः, स एव पुनस्तेनैवावगाहेन द्विरुत्पन्नस्तथा त्रिश्चतुरिति । एवं यावन्तोऽङ्गलस्यासंख्येयभागप्रमिताकाशप्रेदशास्तावत्कृत्वा तत्रैव जनित्वा पुनरेकैकप्रदेशाधिकभावेन सर्वलोक आत्मनो जन्मक्षेत्रभावमुपनीतो भवति यावत्तावत् क्षेत्रपरिवर्तनं । उक्तं च
सम्वम्मि लोगखित्ते कमसो तं त्थि जण्ण उप्पणं ।
ओगाहणा य बहुसो परिभमिदो खित्तसंसारे ॥ [ बा० अणु० २६ ] ॥१७७०॥ कालपरिवर्तनमुच्यते
तक्कालतदाकालसमएसु जीवो अणंतसो चेव ।
जादो मदो य सव्वेसु इमो तीदम्मि कालम्मि ॥१७७१॥ 'तक्कालतदाकालसमयेसु' उत्सर्पिण्यवसर्पिणीसंज्ञितयोः कालयोयें समयास्तेषु । 'जीवो गणंतसो चेव' . जीवोऽनन्तवारान् । 'जादो मदो य सम्वेसु' जातो मृतश्च सर्वेषु समयेषु । 'इमो तोदम्मि कालम्मि' अयमतीते काले । इयमस्या गाथायाः प्रपञ्चव्याख्या-उत्सपिण्याः प्रथमसमये जातः कश्चिज्जीवः स्वायुषः परिसमाप्ती मृतः, स एव पुनर्द्वितीयाया उत्सर्पिण्या द्वितीयसमये जातः स्वायुषः क्षयान्मृतः। स एव पुनस्तृतीयाया
अब क्षेत्रसंसारको कहते हैं
गा०-जगत्में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जहाँ यह जीव अतीत कालमें अनन्तवार जन्मा और मरा न हो ।।१७७०॥
टी०-अन्य आचार्य क्षेत्रपरिवर्तनका स्वरूप इस प्रकार कहते हैं-सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव सबसे जघन्य प्रदेशवाला शरीर लेकर लोकके आठ मध्यप्रदेशोंको अपने शरीरके मध्य प्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभव ग्रहण करके एक श्वासके अठारहवें भाग समय तक जिया और मरा। वही जीव पुनः उसी अवगाहनाको लेकर उसी स्थानमें दुबारा उत्पन्न हुआ, तिबारा उत्पन्न हुआ, चौथी वार उत्पन्न हुआ। इस तरह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण आकाशमें जितने प्रदेश होते हैं उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ। पुनः एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते सर्वलोकको अपना जन्मक्षेत्र बनाया। इस सबको क्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं। कहा भी है
सर्व लोकक्षेत्रमें ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ यह क्रमसे उत्पन्न नहीं हुआ। अनेक अवगाहनाके साथ इस जीवने क्षेत्र संसारमें परिभ्रमण किया ॥१७७०॥
कालपरिवर्तनको कहते हैं
गा०-यह जीव अतीत कालमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके सब समयोंमें अनन्त बार उत्पन्न हुआ और अनन्तबार मरा ॥१७७१।।
दी-इस गाथाकी विस्तृत व्याख्या इस प्रकार है-उत्सर्पिणी कालके प्रथम समयमें उत्पन्न हुआ कोई जीव अपनी आयुके समाप्त होनेपर मरा। वही जीव पुनः दूसरी उत्सर्पिणीके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org