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भगवती आराधना प्रीति पूर्व कृतं कर्म मनोवाक्कायकर्मभि ।
न निवारयितुं शक्यं 'संहतत्रिदशैरपि ॥ इति । तेनान्यदुःखापेक्षः शोकोऽस्य व्यर्थः । अन्यशब्देन च स्वदुःखात्पृथक्त्वं परदुःखस्योच्यते । अन्यत्र परदुःखागतस्यानुप्रेक्षणमन्यत्वानुप्रेक्षा एव परदुःखस्यान्य तामरं प्रेक्षमाणः परदुःखस्योपहननं कर्तुं न शक्यत इति न शोचति [परदुःखं], स्वदुःखोन्मूलने प्रयतत इति भावोऽस्य सूरेः ॥१७४९॥ सर्वस्य जीवराशेरात्मनोऽन्यत्वस्यैवानुप्रेक्षणमन्यत्वानुप्रेक्षेति कथयत्युत्तरगाथा
संसारम्मि अणंते सगेण कम्मेण हीरमाणाणं ।
को कस्स होइ सयणो सज्जइ मोहा जणम्मि जणो ।।१७५०।। 'संसारंमि अणंते' अन्तातीते पञ्चविधे संसारे परिवर्तने । 'सगेण कम्मेण' आत्मीयमिथ्यादर्शनादि परिणामोत्पादितकर्मपर्यायेण पुद्गलस्कन्धेन 'हीरमाणाणं' आकृष्यमाणानां बहविधां गति प्रति । 'को कस्स होदि सयणो' नैव कश्चित् कस्यचित्स्वजनो नाम प्रतिनियत मिति यदि यो यस्य स्वजनत्वेनाभिमतस्स तस्यैव स्वजनः सर्वदा भवेत् । परजनो वा स्वजनतां नोपेयात् । न चायमस्ति प्रतिनियमः स्वकर्म परतन्त्राणामतो न कश्चित् स्वो जनः परो वा ममास्ति । सर्वो जीवराशिमिथ्यात्वादिगणविकल्पोपनीतनानात्वोऽन्य एवेति कृतव्यवसायस्य क्वचिदेव दया प्रीतिर्वा क्वचिन्निर्दयता द्वेषोऽसमानतारूपो न प्रादुर्भवति ततो विरागद्वषस्य चारित्रमविकल्पं भवति । 'सज्जदि जणमि जणो' आसक्ति
'पूर्वमें मन, वचन, कायसे जो कर्म किये है। सब इन्द्र भी मिलकर उनका निवारण नहीं कर सकते'।
इसलिये दूसरेके दुःखको देखकर इसका शोक करना व्यर्थ है । अन्य शब्दसे परके दुःखको अपने दुःखसे भिन्न कहा है। परके आगत दुःखको अपनेसे भिन्न चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। इस प्रकार परके दुःखको अपनेसे भिन्न विचार करता हुआ जानता है कि परके दुःखका विनाश करना शक्य नहीं है इसलिये वह उसका शोक नहीं करता। और अपने दुःखके विनाशमें प्रयत्नशील रहता है । यह आचार्यका अभिप्राय है ।।१७४९।।
आगे कहते हैं कि समस्त जीवराशि अपनेसे अन्य है ऐसा चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है
गा०-टी०-पंचपरावर्तन रूप संसारके अनन्त होते हुए अपने मिथ्यादर्शन आदि परिणामोंसे उत्पन्न हुए पुद्गल स्कन्धरूप कर्म पर्यायके द्वारा अनेक गतियोंमें भ्रमण करते हुए जीवका कौन किसका स्वजन है ? यह स्वजन है और यह परजन है यह भेद हो सकता था यदि जो जिसका स्वजन है वह उसीका स्वजन सदा रहता और परजन कभी भी स्वजन न होता। किन्तु अपने-अपने कर्मों के अधीन जीवोंका यह नियम नहीं हो सकता। अतः न कोई मेरा स्वजन है और न कोई परजन है। मिथ्यात्त्व आदि गुणस्थानोंके भेदसे नाना भेदरूप हुई समस्त जीवराशि मुझसे भिन्न ही है ऐसा जिसने निश्चय किया है उसका किसीमें ही दया और प्रीति और किसीमें निर्दयता और द्वेष यह असामनतारूप व्यवहार नहीं बनता। इसलिये जो राग-द्वेषसे रहित है
१. सहित स्त्रिदर्श -आ० । स्यानित्यतापेक्षमाणः -आ० ।
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