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विजयोदया टीका अन्यत्वभावनानिरूपणार्थमुत्तरःप्रबन्धः
किहदा जीवो अण्णो अण्णं सोयदि हु दुक्खियं णीयं ।
ण य बहुदुक्खपुरक्कडमप्पाणं सोयदि अबुद्धी ॥१७४९।। 'किहदा अण्णो जीवो अण्णं णीगं किह सोयदिति' पदघटना । अन्यो जीवो नीगं स्वस्मादन्यं ज्ञातिवर्ग । 'दुक्खिदं' दुःखेनाभिभूतं, कथं तावच्छोचति । 'ण य सोचदि' नैव शोचते। कं ? 'अत्ताणं' आत्मानं ? कीदृग्भूतं 'बहुदुक्खपुरक्कडं' शारीरैरागंतुकैः, मानसः, स्वाभाविकैश्च वहुभिर्दुःखैः पुरस्कृतं । 'अबुद्धि' मयाऽतीते काले चतसृषु गतिषु विचित्रास द्योदयात् द्रव्यक्षेत्रकालभावसहकारिकारणसान्निध्यापेक्षयानुपरतमापदः प्राप्ताः पुनरप्यागमिष्यति मां खलीकत्तु। न हि कारणाभ्यासस्थितसहकारिप्रत्यये सति कार्यस्यानुद्भवो नामास्ति, यो यद्भावैपि नासादयेदुदयं स कथमिव तद्धेतुकः ? यथा सत्यपि यवबीजेऽनुपजायमानश्चूताङ्कराः । तथा सत्यसद्वद्योदये यदि न स्युर्भवन्ति च । तस्मादात्मप्रदेशावस्थितस्य दुःखबीजस्य केनोपायनापायो भविष्यतीत्यकृतबुद्धितया अबुद्धिः । एतदुक्तं भवति परस्य दुःखं आत्मन एव दुःखमिति मत्वा शोकमयमुपैति, तद्विनाशे च सततं प्रयत्नं करोति । तथा च प्रवर्तमानस्य स्वदुःखनिवृत्तये न प्रारम्भोऽस्ति । ततोयं दुःखं भोज भोज पर्यटति । न च परो दुःखात्त्रातुं शक्यते । तेन हि सञ्चितानि कर्माणि कथं फल न प्रयच्छन्ति । न हि परस्य शोकः फलदायिनां कर्मणां प्रतिबन्धकः, तथा चाभ्यधायिआदिको कोई अपना सहायक नहीं मानता। उसी प्रकार शरीर धन वगैरह भी अपकार करनेवाले हैं। इस प्रकार बार-बार अभ्यास करनेसे 'मेरा कोई अन्य सहाय नहीं है। ऐसा सतत् चिन्तन चलता है ॥१७४८॥
आगे अन्यत्व भावनाका कथन करते हैं
गा०-टी०–अन्य जीव अपनेसे अन्य सम्बन्धी जनोंको दुःखसे पीड़ित देखकर कैसे शोक करता है ? किन्तु यह अज्ञानी शारीरिक, आगन्तुक, मानसिक और स्वाभाविक अनेक दुःखोंसे घिरे हुए अपने आत्माको चिन्ता नहीं करता है कि अतीतकालमें मैंने चारों गतियोंमें अनेक प्रकारके असातावेदनीयके उदयसे तथा द्रव्य क्षेत्र काल और भावरूप सहकारी कारणोंके मिलनेसे निरन्तर आपदाएँ भोगी और वे आपदाएँ पुनः मुझे परेशान करनेके लिये भविष्यमें आयेंगी। सहकारी कारणोंके साथ कारणके रहते हुए कार्य अवश्य उत्पन्न होता है। जो जिसके रहते हुए भी उत्पन्न नहीं होता वह उसका कारण कैसे हो सकता है ? जैसे जौ बोनेपर आमका अंकुर पैदा नहीं होता अतः आमके अंकुरका कारण जौके बीज नहीं हैं। उसी प्रकार असातावेदनीयका उदय होते हुए भी यदि दुःख नहीं होता तो असातावेदनीय दुःखका कारण नहीं हो सकता। किन्तु असातावेदनीयके उदयमें दुःख अवश्य होता है। अतः आत्माके प्रदेशोंमें जो दुःखके कारण उपस्थित हैं उनका विनाश किस उपायसे होगा, ऐसा विचार न करनेसे उसे अबुद्धि कहा है। कहनेका अभिप्राय यह है कि यह अज्ञानी जीव दूसरेके दुःखको अपना ही दुःख मानकर शोक करता है और उसके विनाशका निरन्तर प्रयत्न करता है। और ऐसा करनेसे अपने दुःखको दूर करनेका प्रारम्भ भी नहीं कर पाता । इससे दुःख भोगते-भोगते भ्रमण करता है। दूसरेको दुःखसे बचाना शक्य नहीं है। उसने जो कर्मबन्ध किया है वह उसे फल क्यों नहीं देगा ? दूसरेके शोक करनेसे फल देनेवाले कर्म रुक नहीं जाते । कहा भी है
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