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विजयोदया टीका
-७७३ रोगाणं पडिगारा दिट्ठा कम्मम्स पत्थि पडिगारो ।
कम्मं मलेदि हु जगं हत्थीव णिरंकुसो मत्तो ॥१७३६ । 'रोगाणं पडिगारा दिवा' व्याधीनां प्रतीकारा दृष्टा औषधादयः । कर्मणां नास्ति प्रतीकारः। जगदशेष मई यति कर्म मदगज इव निरङ्कुशो नलिनीवनं ॥१७३६॥
'रोगाणं पडिगारो पत्थि य कम्मे णरस्स समुदिण्णे।
रोगाणं पडिगारो होदि हु कम्मे उवसमंते ।।१७३७।। 'रोगाणं पडिगारों' व्याधीनां प्रतीकारो नास्ति कर्मण्यसद्वे ये प्राप्तोदये सति, पथ्यौषधादिभिरुपशमो रोगादीनां सोऽपि कर्मण्युपशमं गत एव नानुपशान्तेऽत्र ॥१७३७॥
विज्जाहरा य बलदेववासुदेवा य चक्कवट्टी वा ।
देविंदा व ण सरणं कस्सइ कम्मोदए होति ॥१७३८। 'विज्जाहरा य' विद्याधरादयो महाबलपराक्रमा अपि न शरणं भवन्ति कर्मोदय इति गाथार्थः ।।१७३८॥
वोल्लेज्ज च कमंतो भूमि उदधिं तरिज्ज पवमाणो ।
ण पुणो तीरदि कम्मरस फलमुदिण्णस्स वोले, ॥१७३९।। 'वोल्लेज्ज' उल्लङ्घयेत् गच्छन् भूमि, समुद्रं तरेत् प्लवमानः । उदीर्णस्य कर्मणः फलमुल्लङ्घयितुं न वेत्ति कोऽन्यो वा महाबलोऽपि ।।१७३९॥
सीहतिमिगिलग हिदस्स मगो मच्छो व णत्थि जह सरणं ।
कम्मोदयम्मि जीवस्स पत्थि सरणं तहा कोई ॥१७४०॥ 'सीहतिमिगिलगहिदस्स' सिंहेन तिमिगिलास्येन महामत्स्येन च गृहीतस्य नैव शरणं भवति अन्यो मृगो मत्स्यो वा । तथा कर्मोदये जीवस्य नास्ति कश्चिच्छरणम् ॥१७४०॥
प्रकार सहकारी कारणोंके मिलनेपर उदयमें आये कर्मको जगत्में कोई रोक नहीं सकता ॥१७३५।।
गा०-रोगोंका प्रतीकार औषध आदि हैं किन्तु कर्मका कोई प्रतीकार नहीं है। जैसे निरंकुश मत्त हाथी कमलिनीके वनको उजाड़ देता है वैसे ही कर्म समस्त जगत्को मसल देता है ॥१७३६॥
'गा०-असातावेदनीय कर्मका उदय होनेपर रोगोंका प्रतीकार नहीं है। पथ्य औषध आदिसे जो रोगोंका उपशम होता है वह भी कर्मका उपशम होनेपर ही होता है। कर्मका उपशम न होनेपर औषध आदि भी लाभकारी नहीं होती ॥१७३७॥
गा०-कर्मका उदय होनेपर विद्याधर, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती अथवा देवेन्द्र जैसे महाबली, महापराक्रमी भी किसीके शरण नहीं होते। वे भी रक्षा नहीं कर सकते ॥१७३८।।
गा०-चलता हुआ प्राणी भूमिको लांघ सकता है। तैरता हुआ प्राणी समुद्रको तैर - सकता है। किन्तु उदयागत कर्मके फलको उल्लंघन कोई महाबली भी नहीं कर सकता। उसे सबको भोगना पड़ता ही है ।।१७३९||
गा०-जैसे कोई सिंह किसी मृगको पकड़ ले तो दूसरा मृग उसकी रक्षा नहीं कर सकता। १. गिलिदस्स अ०।
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