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भगवती आराधना
'इहलोगबन्धवा' अस्मिन्नेव जन्मनि बान्धवाः । 'परस्स लोगस्स ण णियया होंति' अन्यस्य जन्मनो न बन्धवो भवन्ति । 'तह चैव बांधवा इव घणं देहो संगा सयणासणावी य' धनं शरीरं शयनासनादयश्च परिग्रहा इह लोके एव न परजन्मनि उपकारका भवन्ति । एवं हि ते बान्धवाः परिग्रहाश्च सहाया इति ग्रहीतुं शक्यन्ते यद्यनपायितया उपकारिणः स्युः । इह जन्मन्येव ये प्रयान्ति ते परलोकं गच्छन्तमनुसरन्तीति का
प्रत्याशा ।।१७४६ ॥
७७६
यद्यते बान्धवादयो न सहायाः कस्तहि सहाय इत्याशङ्कायामाचष्टे -
जो पुणधम्मो जीवेण कदो सम्मत्तचरणसुदमइओ । सो परलोए जीवस्स होइ गुणकारकसहाओ || १७४७॥
'जो पुण' यः पुनः । 'जीवेण कदो धम्मो' जीवेन कृतो धर्मः, 'सम्मत्तचरण सुदमइगो' रत्नत्रयरूपो दुर्गतिप्रस्थितं जीवं धारयति धत्ते वा शुभे स्थाने इति रत्नत्रयं धर्म इत्युच्यते । 'सो' सः व्यावणितो धर्मः । 'जीवस्स' जीवस्य । 'परलोगे' परजन्मनि । गुणकारकः सहायो भवति अभ्युदयनिश्रेयससुखप्रदानात् । तथा चोकं—
दत्वा द्यावापृथिव्योर्वरविषयति वीतभीशुग्विषादां
कृत्वा लोकत्रयैश्यं सुरनरपतिभिः प्राप्य पूजां विशिष्टाम् ।
मृत्युव्याधिप्रसूतिप्रियविगमजरारोगशोकप्रहोणे
मोक्षे नित्योरुसौख्ये क्षिपति निरुपमे यस्स नोऽव्यात्सुधर्मः ॥ इति ॥ १७४७॥
ननु च 'असहायत्वभावनाधिकारे सहायनिरूपणा कथमुपयुज्यते । नैष दोषः यो येन जन्तुना सहाय
गा० - टी० - जो इस जन्म में बान्धव हैं वे परलोकमें बान्धव नहीं होते । बान्धवोंकी ही तरह धन, शरीर, शयन, आसन आदि परिग्रह भी इसी लोकमें काम आते है परलोकमें नहीं । यदि वे बान्धव और परिग्रह सदा रहनेवाले हों तो उन्हें सहायक कहा जा सकता है। जब वे इसी जन्म में नष्ट हो जाते हैं तो वे परलोकमें जानेपर साथमें जायेंगे, इसकी आशा कैसी ? | १७४६ ॥
यदि ये बन्धु आदि सहायक नहीं हैं तो कौन सहायक हैं ? इसका उत्तर देते हैं
गा० - टी० - जीवने सम्यक्त्वचारित्र ज्ञानरूप अर्थात् रत्नत्रयरूप धर्मं किया है जो दुर्गति में जानेवाले जीवका धारण करता है उसे शुभ स्थानमें धरता है वह धर्म है इस तरह रत्नत्रयको धर्म कहते हैं । वह धर्म परलोकमें जीवका गुणकारक सहायक होता है । क्योंकि उससे सांसारिक और पारमार्थिक सुख मिलता है। कहा है
वह धर्म हमारी रक्षा करे जो मर्त्यलोक और स्वर्गलोकके भय, शोक और विषादसे रहित विषय सुखको देकर देवेन्द्रों और राजेन्द्रोंसे विशिष्ट रूपसे पूजित तीन लोकोंका स्वामी तीर्थङ्कर पद प्रदान करता है तथा अन्त में मृत्यु, रोग, जन्म, प्रियवियोग, जरा, व्याधि और शोकसे रहित नित्य उत्कृष्ट और अनुपम सुखवाले मोक्षमें ले जाता है ।
शङ्का—यह अधिकार असहाय भावनाका है कि जीवका कोई सहाय नहीं है । इसमें सहायका कथन करना कैसे उचित है ?
१. असहायवचनाधिकारे -आ० ।
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२. योज्ञेन बन्धुना -आ० ।
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