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विजयोदया टीका
७७५ "किंचिवि ण करंति' किंचिदपि प्रतीकारजातं न कुर्वन्ति । परह वा जन्मन्येक एवानुभवति जन्तुर्न तदीयकर्मफलसंविभागकरणे समर्थः कश्चिदिति भावः ॥१७४३।। तह तथा यथा दुःखं स्वकर्मफलमेक एवानुभवति
तह मरइ एक्कओ चेव तस्स ण विदिज्जगो हवइ कोई ।
भोगे भोत्तुं णियया विदिज्जया ण पुण कम्मफलं ॥१७४४॥ तथा स्वायुगलने । 'एक्कगो चेव मरदि' एक एव प्राणांस्त्यजति । 'ण विदिज्जगो होइ कोई' न सहायो भवति कश्चित् । तदीयं मरणं संविभज्य गृहीत्वा सहायतां न कश्चित्करोतीत्यर्थः । अन्यथा एक एव म्रियते इत्यघटमाने बहूनामप्येकदा मरणात् । 'भोगे' भुज्यन्तेऽनुभूयन्त इति भोगाः द्रव्याणि अशनवसनमुखवासादीनि । भोक्तमनभवितं निजका बान्धवाः । विदिज्जगा' सहायाः । 'ण प्रण' न पनः णीयगा विदिज्जया' तदीयकर्मफलं भोक्त्तं न बन्धवस्सहायाः ।।१७४४।। प्रकारान्तरेणकत्वभावनामाचष्टे
णीया अत्था देहादिया य संगा ण कस्स इह होति ।
परलोंगं अण्णेत्ता जदि वि दइज्जति ते सुट्ठ ॥१७४५॥ 'णोगा अत्था' बन्धवो धनं शरीरादिकाश्च परिग्रहाः कस्यचिदपि सम्बन्धिनो न यान्ति परलोकं प्रति प्रस्थितं । यद्यपि सुष्टु काम्यन्ते परिग्रहाः । गृहीत्वा तान्यदि नामास्य गन्तुमुत्कण्ठा तथापि ते नानुगच्छन्त्येक एव यातीत्येकत्वभावना ।।१७४५।।
इहलोगबंधवा ते णियया परस्स होंति लोगस्स । तह चेव धणं देहो संगा सयणासणादी य ।।१७४६।।
लोक और परलोक में जीव अकेला ही भोगता है। उसके कर्मफलका बटवारा करने में समर्थ कोई भी नहीं है । यह इसका अभिप्राय है ॥ १७४३।।।
गा०-टी०-जैसे यह जीव अपने कर्मफलको स्वयं ही भोगता है उसी प्रकार अपनी आयु समाप्त होनेपर अकेला ही प्राणोंको त्यागता है । दूसरा कोई भी उसका सहायक नहीं है ! अर्थात्
का भागीदार बनकर कोई भी उसकी सहायता नहीं करता। यदि एक ही मरता है ऐसा न हो तो एकके साथ बहतोंको मरण प्राप्त होता है। जो भोगे जाते हैं उन्हें भोग कहते हैं। भोजन, वस्त्र, मुखको सुवासित करनेवाले द्रव्य भोग हैं । भोगोंको भोगने में तो अपने बन्धुबान्धव सहायक होते हैं। किन्तु उसके कर्मो का फल भोगने में कोई सहायक नहीं होता ॥१७४४||
प्रकारान्तरसे एकत्व भावनाको कहते हैं
गा० टी०-बन्धु-बान्धव, धन और शरीर आदि परिग्रह किसीके नहीं होते। जब यह जीव परलोक जाता है तो उसके साथ नहीं जाते । यद्यपि मनुष्य परिग्रहोंसे बहुत अनुराग रखता है । वह यदि उनको पकड़कर साथ ले जाना चाहे तो भी वे उसके साथ नहीं जाते। जीव अकेला ही जाता है । यह एकत्व भावना है ॥१७४५।।
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