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भगवती आराधना व्यावणितानामशरणत्वं मनसावधार्य इदं शरणमिति चिन्तनीयमिति कथयति
दसणणाणचरित्तं तवो य ताणं च होइ सरणं च ।
जीवस्स कम्मणासणहेदु कम्मे उदिण्णम्मि ॥१७४१।। 'दंसणणाणचरित्तं तवो य' ज्ञानं दर्शनं चारित्रं तपश्च रक्षा शरणं च भवति । जीवस्य कर्मणां नाशहेतुः कर्मण्युदीर्णेऽप्यसद्वद्यादौ । एवमशरणानुप्रेक्षा गता ॥ असरणा ॥१७४१॥ एकत्वानुप्रेक्षा उत्तरेण प्रबन्धेनोच्यते
पावं करेदि जीवो बंधवहेदुसरीरहे, च ।
णिरयादिसु तस्स फलं एक्को सो चेव वेदेदि ॥१७४२।। पापं करोति जीवो बान्धवनिमित्तं शरीरनिमित्तं च । बान्धवशरीरपोषणार्थ कृतस्य कर्मणः फलं नरकादिष्वेक एवानुभवति ॥१७४२।।
नरकादिगतिषु प्राप्तं दुःखमपश्यंतस्तत्रासंतो बान्धवाः किं कुर्वन्तीति आशंकां निरस्यति सन्निहिताः पश्यन्तोऽप्यकिंचित्करा इति कथनेन
रोगादिवेदणाओ वेदयमाणस्स णिययकम्मफलं ।
पेच्छंता वि समक्खं किंचिवि ण करंति से णियया ॥१७४३।। 'रोगादिवेदणाउ' रोगादिदुःखानि । “णिययकम्मफलं' निजकर्मफलं स्वयोगत्रयोपचितस्य कर्मणः फलं । 'वेदयमाणस्स' वेदयमानस्य । 'समक्वं पेच्छंतावि' प्रत्यक्षं पश्यन्तोऽपि । “णियया' निजका बान्धवाः, 'से' तस्स
या तिमिंगल नामक महामत्स्य किसी मच्छको पकड़ ले तो दूसरा मच्छ उसको नहीं छुड़ा सकता। उसी प्रकार कर्मका उदय आनेपर जीवका कोई शरण नहीं होता ||१७४०।।
___ आगे कहते हैं कि ऊपर जिनका वर्णन किया है, वे शरण नहीं हैं ऐसा मनमें दृढ़ निश्चय करके आगे कहे पदार्थ शरण हैं ऐसा विचारना चाहिये
गा०-जीवके असातावेदनीय आदि कर्मका उदय होनेपर कर्मोके नाशके कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप ही रक्षक हैं और शरण हैं ।।१७४१॥
इस प्रकार अशरणानुप्रेक्षाका कथन हुआ। आगे एकत्वानुप्रेक्षाका कथन करते हैं
गा० - जीव बन्धु-बान्धवोंके निमित्त और शरीरके निमित्त पाप करता है । और बान्धवोंके तथा अपने शरीरके पोषणके लिये जो पापकर्म करता है उसका फल नरकादिमें अकेला ही भोगता है ।।१७४२।।
यहाँ कोई कह सकता है कि नरकादि गतियोंमें वह जो दुःख भोगता है उसे उसके बन्धुबान्धव नहीं देखते क्योंकि वे वहाँ नहीं हैं इसीसे वे कुछ कर नहीं सकते। इसके उत्तरमें कहते हैं कि निकट रहकर देखते हुए भी वे कुछ नहीं कर सकते
गा०-टो०-अपने मनोयोग, वचनयोग और काययोगसे संचित कर्मका फल जब यह जीव भोगता है तो प्रत्यक्ष देखते हुए भी उसके बन्धुगण कुछ भी उसका प्रतीकार नहीं करते । इस
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