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विजयोदया टीका
७७१ पाओदएण सुट्ठ वि चेटुंतो को वि पाउणदि दोसं ।
पुण्णोदएण दुट्ठ वि चेटुंतो को वि लहदि गुणं ।।१७२७।। 'पावोदएण' अयशस्कीर्तेरुदयेन । 'सुठु वि चेठेतो' सम्यक् चेष्टमानः । 'कोवि पाउणदि दोसं' कश्चित्प्राप्नोति दोषं । 'पुण्णोदयेण' पुण्यकर्मण उदयेन । 'दुठ्ठ वि चेट्टतो' यत्किचिदकार्य कुर्वन्नपि । 'कोवि लभदि गुणं' कश्चिल्लभते गुणम् ।।१७२७॥
पुण्णोदएण कस्सइ गुणे असंते वि होइ जसकित्ती ।
पाओदएण कस्सइ सगुणस्स वि होइ जसघाओ ।।१७२८।। ___ 'पुण्णोदएण' पुण्यस्योदयेन । 'कस्सइ होइ जसकित्ती' कस्यचिद्भवति यशस्कीर्तिश्च । 'पावोदएण' पापस्यो दयेन । 'कस्सइ सुगुणस्स वि' कस्यचित् सुगुणवतोःपि । 'जसघादों होदि' यशोधातो भवति ।।१७२८।।
णिरुवक्कमस्स कम्मस्स फले समुवट्टिदमि दुक्खंमि ।
जादिजरामरणरुजाचिंताभयवेदणादीए ॥१७२९॥ 'णिरुवक्कमस्स' निःप्रतीकारस्य कर्मणः। 'फले समवदिदंहि दुक्ख हि' समुपस्थिते दुःखे, 'जादिजरामरणरुजाचिताभयवेदणावीगे' जातो, जरायां, मरणे, व्याधौ, चिन्तायां, भय, वेदनादी च समुपस्थिते ॥१७२९।।
जीवाण णत्थि कोई ताणं सरणं च जो हवेज्ज इधं ।
पायालमदिगदो वि य ण मुच्चदि सकम्मउदयम्मि ॥१७३०॥ 'जीवाण' जीवस्य । नास्ति कश्चिद्रक्षा शरणं वा। 'जो हवेज्ज' यो भवेत् । 'पादालमदिगदो वि' पातालं प्रविष्टोऽपि । ‘ण मुच्चदि' । न मुच्यते दुःखात् । 'सकम्मउदयेहि' स्वकर्मोदये सति ।।१७३०॥
गिरिकंदरं च अडवि सेलं भूमि च उदधि लोगंतं । अदिगंतूणं वि जीवो ण मुच्चदि उदिण्णकम्मेण ॥१७३१।।
जाता है । और पुण्यवानको बिना प्रयत्न किये दूरसे भी पदार्थ प्राप्त होता है ।।१७२६।।
गा०-पाप अर्थात् अयशःकीति नामक कर्मके उदयसे सम्यक् चेष्टा करनेवाला भी दोषका भागी होता है । और पुण्य कर्मके उदयसे न करने योग्य भी काम करनेवाला प्रशंसाका पात्र होता है ।।१७२७॥
गा०-पुण्यके उदयसे किसीमें गुण न होते भी उसका यश फैलता है। और पापके उदयसे गुणवानका भी अपयश होता है ॥१७२८॥
गा०—जिसका कोई प्रतीकार नहीं है ऐसे कर्मका उदय आनेपर जन्म, जरा, मरण, रोग, चिन्ता, भय, वेदना आदि दुःख भोगने होते हैं ।।१७२९।।
__ गा०—ऐसी अवस्थामें जीवका कोई रक्षक नहीं है जिसकी वह शरणमें जाये। अपने कर्मके उदयमें पातालमें प्रवेश करनेपर भी कर्मसे छुटकारा नहीं होता ॥१७३०।।
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