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विजयोदया टीका
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परेन्द्रियोपघातकारणाद्य 'दर्जितं अवग्रहेहावायधारणाविकल्पं मतिज्ञानं श्रुतादिकं वा
काले
पठनात्
नाशयति । उक्तं च
अवग्रहीतुं च तथेहितुं च सोवेहितुं धारयितुं च सम्यक् । नालं भवर्त्यजितवान्पुरा यः कर्माधमं ज्ञानवृतेनिमित्तम् ॥१॥
अन्धश्च पश्यन् बधिरश्च शृण्वन् जिह्वां विनाऽसौ रसनांस्तथाश्नन् । त्वचो विनाशे वरशीतकादि जानन्नसौ कर्मविभावबद्धः ॥२॥ घ्राणं विना गन्धमयं हि जीवों जानाति नित्यं निखिलं जगच्च । परन्तु बोधावृतिकर्म नाम्ना प्रोद्यंस्तरां न विषयेषु वेत्ति ॥३॥ एकेन्द्रिय द्वीन्द्रियतां भवेषु स त्रीन्द्रियत्वं चतुरिन्द्रियत्वम् । तेनावृतः कर्म महाम्बुदेन प्राप्नोति जीवो विमनस्कतां च ॥४॥ द्रष्टुं हितं श्रोतुमथेहितुं च कर्तुं च दातुं विधिना च भोक्तुम् । स्वकर्मणा तेन नरो वृतस्सन् न बुध्यमानः पशुनैति साम्यम् ॥५॥ स्वबुद्धि मात्रामपि शक्यमाप्तुं श्रेयः समीपस्थमिहाप्यविद्वान् । सुदूरसंस्थं च श्रतोऽभिगम्यं स केन विन्द्यात् परलोकपथ्यम् ॥ ६॥
प्रशस्त ज्ञानकी प्रशंसा न करनेसे, जीव ज्ञानावरण कर्मका बन्ध करता है । तथा ज्ञानादिका निग्रह करनेसे, अकालमें स्वाध्याय करनेसे, दूसरेकी इन्द्रियों का घात करनेसे संचित मतिज्ञानका, जिसके अवग्रह ईहा अवाय और धारणा भेद हैं तथा श्रुतज्ञान आदिका नाश हो जाता है । कहा है
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जो पहले ज्ञानको रोकने में निमित्त नीच कर्म उपार्जित कर चुका है, वह सम्यक्रूपसे पदार्थको अवग्रहण करने में, ईहित करनेमें, अवायरूपसे जानने में तथा जाने हुएको धारण करने में समर्थ नहीं होता । अर्थात् उसे पदार्थोंका अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप ज्ञान नहीं होते । यह जीव आँखोंके बिना देखता है । कानोंके बिना सुनता है । जिह्वाके बिना रसोंका स्वाद लेता हैं। त्वचा के बिना शीत आदिका अनुभव करता है । किन्तु कर्मोसे बद्ध होनेसे ऐसा नहीं कर सकता । तथा यह जीव बिना नाकके गन्धको जानता है किन्तु ज्ञानावरण नामक कर्मका उदय होनेसे इन्द्रियों के बिना विषयोंको नहीं जानता । उस ज्ञानावरण नामक कर्मरूपी महामेघसे ढका होनेसे यह जीव एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असैनी पञ्चेन्द्रिय होता है । अपने ज्ञानावरण कर्मके उदयसे मनुष्य न हितको देखता है, न सुनता है, न हितको जाननेकी इच्छा करता है, न विधिपूर्वक धन देता है, न उसे भोगता है । इस प्रकार वह पशुके समान हो रहा है । जो अपने समीपवर्ती भी कल्याणको जो कि अपनी बुद्धिमात्र से प्राप्त करने योग्य है, नहीं जानता, वह सुदूरवर्ती और शास्त्र के द्वारा जानने योग्य परलोकमें जो हितकर है उसे कैसे जान सकता
१. णादाजि - अ० । २. त्वगीतये सत्यपि विष्वगेव न यो विशेषान् विषयेषु वेत्ति ॥२॥ एकेन्द्रिय अ० मु० । ३. द्विसाव्यानपिश -आ० । ४. हास्यति - अ० । ५. च ततोऽभिगम्य सेकेन विद्या - अ० !
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