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भगवती आराधना छाहीए' नानादिग्देशागतानां पथिकानां भिन्नस्थानयायिनां मार्गोपकण्ठस्थितनिबिडतरपलाशालंकारविततशाखाकरशतनिवारितधर्मरश्मिप्रसरतरुवरशीतलाविरलविपुलछायायां पान्थानां समाज इव । 'पीदीवि' प्रीतिरपि । 'अच्छि रागोव्व' प्रणयकलहपांसुपातषितप्रियतमालुठत्पाठीनोदरधवललोचनान्तराग इव अनित्या सर्वजीवानां । तथाह्यप्रियाचरणविषकणिकाप्रणयलोचनप्रलयं संविदधातीति प्राणभृतामनुभवसिद्धमेव ॥१७१४॥
रत्तिं एगम्मि दुमे सउणाणं पिण्डणं व संजोगो ।
परिवेसोव अणिच्चो इस्सरियाणाधणारोग्गं ॥१७१५।। 'रत्ति' रात्रौ। 'एगम्मि दुमे एकस्मिन् द्रुमे । 'सगुणाणं' पक्षिणां । 'पिण्डणं व' पिण्डितमिव 'संजोगो' संयोगो यस्यामस्तद्रुमाभिमुखं तत्र वयं प्राप्स्यामोन्योन्यमित्यकृतसंकल्पानां यथाकथंचिदन्योन्यप्राप्तिरल्पकाला तथा प्राणभृतामपि समानकालकालमारुतप्रेरितानामेकस्मिन् कुलविटपिनि कतिपयदिनभावीसंप्रयोगः । 'परिवेसो व' परिवेष इव । 'अणिचं' अनित्यं । कि? 'ईसरियाणाधणारोगं' ऐश्वयं प्रभता आज्ञा धनं आरोग्यं च ॥१७१५॥
इंदियसामग्गी वि अणिच्चा संझाव होइ जीवाणं ।
मज्झण्हं व णराणं जोव्वणमणवट्ठिदं लोए ॥१७१६।। 'इंदियसामग्गीवि' इन्द्रियाणां सामन्यपि । 'अणिच्चा' अनित्या। अंधता बधिरता च दृश्यत एव । 'मज्झण्हं व' मध्याह्नवत, 'णराणं जोव्वणमणवद्विवं लोगे' नराणां यौवनमनवस्थितं लोके यौवनोऽहमिति जनः
जानेवाले पथिक मार्गके समीपमें स्थित अत्यन्त घने पलाश आदि वृक्षोंके फैले हुए शाखाभारसे सूर्यके तेजको दूर करनेवाले वृक्षोंकी शीतल और घनी छायामें अपना समाज बनाकर बैठते हैं और धूप ढलनेपर अपने-अपने स्थानोंको चले जाते हैं। उन्हींकी तरह मित्र, बन्धु और परिजनोंके साथ सहवास भी अनित्य है। वे भी आयु पूरी होनेपर अपने-अपने स्थानोंको चले जाते हैं । तथा सब जीवोंकी प्रीति भी अनित्य है। जैसे प्रेमकलहके कारण या धूल पड़ जानेसे प्रिय स्त्रीकी क्रीड़ा करती हुई मछलियोंके उदर भागके समान श्वेत लोचनोंके कोनोंमें ललामी अनित्य है। अप्रिय आचरणरूपी विषकी कनी प्रेमरूपी नेत्रोंको नष्ट कर देती है यह बात सब प्राणियोंके अनुभवसे सिद्ध है अतः प्रीति भी अनित्य है ।।१७१४॥
गा०-जैसे पक्षो सूर्यके अस्त होनेपर हम अमुक वृक्षपर मिलेंगे, ऐसा परस्परमें संकल्प नहीं करते। फिर भी जिस किसी प्रकार कुछ समयके लिये परस्परमें मिल जाते हैं। उसी प्रकार संसारके प्राणी भी समान कालरूप वायुसे प्रेरित होकर एक कुलरूपी वृक्षपर कुछ दिनोंके लिये आ मिलते हैं। तथा ऐश्वर्य, प्रभुता, आज्ञा, धन और आरोग्य भी सूर्य की परिधिकी तरह अनित्य हैं ।।१७१५।।
गा०-टी०–सन्ध्याकालकी तरह इन्द्रियोंकी सामग्री भी अनित्य है। क्योंकि लोकमें अन्धे और बहरे मनुष्य देखे जाते हैं। तथा मध्याह्न कालको तरह लोकमें मनुष्योंका यौवन भी अनव
१. तरखदिरपलाशालंकारविनतशा-आ० मु०। ३. मेकैक-आ०।
२. योगः सूर्यस्य अस्ते द्रुमा-आ० ।
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