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भगवती आराधना
लोगो विलीयदि इमो फेणोव्व सदेवमाणुसतिरिक्खो । रिद्धीओ सव्वाओ सुविणय संदंसणसमाओ ॥ १७११ ।।
'लोगो विलीयदि इमो' लोको विलयमुपयाति । किमिव ? 'फेणोव्व' फेनवत् । 'सदेवमाणुसतिरिक्खो' देवैर्मानुषैस्तिर्यग्भिश्च समन्वितः । इत्यनेन लोकत्रयस्यापि विनाशिताभिहिता । 'रिद्धीओ सव्वाओ' ऋद्धयः सर्वा: । 'सुमिणगसंदंसणसमाओ' स्वप्नज्ञानसमाः । ननु 'लोगो विलीयदि इमो' इत्यनेन सर्वस्यानित्यता व्याख्याता, ऋद्ध्यादयोऽपि लोकान्तर्भूता इति किमर्थं भेदोपन्यासः ? । अत्रोच्यते । समुदायस्यावयवात्मकस्यावयवानित्यतामन्तरेण तदनित्यता न सुखेनावगम्यत इति भिदोपन्यस्यते ॥ १७१० ॥ १७११॥ .
द्रव्यगतो लोभो महान् प्राणभृतां तन्मूलत्वादिन्द्रियसुखस्य । प्राणानप्ययं त्यजति द्रव्यनिमित्तमतस्तदनित्यतामेव प्रागुपदर्शयति निस्संगतामात्मनः संपादयितुं -
विज्जूव चंचलाई दिट्ठपणट्ठाई सव्वसोक्खाई ।
जलबुब्बुदोन्व अधुवाणि हुंति सव्वाणि ठाणाणि ।। १७१२ ॥
'विज्जूव चंचलाई' विद्युदिव चञ्चलानि, 'दिट्ठपणट्ठाई' दृष्टप्रणष्टानि, 'सव्वसोक्खाई' सर्वाणि सुखानि अभिमतरूपादिविषयपञ्चकस्य प्रपञ्चस्य सन्निधानादुपजातानि यानि च मनः समुत्थानि सर्वेषां वा मानवानां तिरश्चां दिविजानां वा सुखानि सुखलम्पटतया जनः क्लेशाशनिशतनिपातमपि सहते, तानि च नीरभरविन'तसंभारगम्भीरधारारावनीलनी 'रदोदरपरिस्फुरत्तडिल्लतेव, एतेनानित्यतादोषोत्प्रकटनेन सांसारिकसुखपराङ्मुखतोपायो निगदितः । 'जलबुब्बुदोग्व' जलबुद्बुदवत् । 'अधुवाणि' अध्रुवाणि । 'होंति' भवन्ति ।
गा० - टी० – देव, मनुष्य और तिर्यञ्चों के साथ यह लोक जलके फेनके समान विनाशको प्राप्त होता है । इससे तीनों लोकोंको विनाशशील कहा है । सब ऋद्धियाँ भी स्वप्नज्ञानके समान विनाशक हैं ।
शङ्का- 'लोक विनाशशील है' इससे सबको अनित्य कह दिया है। ऋद्धि आदि भी लोकके अन्तर्भूत हैं । फिर अलग से उनको विनाशी कहनेका क्या प्रयोजन है ?
समाधान-समुदाय अवयवात्मक है। अतः अवयवों की अनित्यताके विना समुदायकी अनित्यताका ज्ञान सुखपूर्वक नहीं होता। इससे ऋद्धियोंको अलगसे अनित्य कहा है ।। १७११ ।।
प्राणियों को द्रव्यका लोभ बहुत अधिक होता है, क्योंकि इन्द्रिय सुखका मूल द्रव्य है । इसीसे वह द्रव्य के लिये प्राणों तकको त्याग देता है । अतः आत्माको निःसंग बनानेके लिये प्रथम द्रव्यकी अनित्यता ही दर्शाते हैं
गा०—टी० – इष्ट रूप आदि पाँच विषयोंके समूहके सम्बन्धसे उत्पन्न तथा मनसे उत्पन्न स मनुष्यों तिर्यञ्चों और देवोंका सब सुख बिजली के समान चपल है और देखते-देखते नष्ट होनेवाला है । आशय यह है कि मनुष्य सुखका लम्पटी होनेसे सैकड़ों वज्रपातोंके गिरनेसे होनेवाले कष्टको भो सहता है । किन्तु वे सब सुख जलके भारसे नम्र हुए गम्भीर धीर शब्द करने वाले नीले बादलोंके उदरमें चमकने वाली बिजुलीकी तरह हैं । इस अनित्यता दोषको प्रकट करनेसे सांसा-रिक सुखसे विमुख होने का उपाय कहा है । तथा सब स्थान जलके बुलबुलेकी तरह अध्रुव हैं ।
१. नतभंभंग - अ० । २. नीरदोषपरि अ० ।
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