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विजयोदया टीका
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'जिनमतं' जिनकथितं उपदेशं । 'विचिणादि वा अपाये जीवाणं सुभे य असुभे य' जीवानां शुभाशुभकर्मविषयानपायान् तान्विचारयति । एतदुक्तं भवति शुभाशुभकर्मणः कथमपायो भवति जीवस्य इति चिन्ताप्रवाहोऽपायविचयो नाम । स्पष्टार्थोत्तरगाथा ।।१७०७।।।
१एयाणेयभवगदं जीवाणं पुण्णपावकम्मफलं । उदओदीरणसंकमबंधे मोक्खं च विचिणादि ॥१७०८।।
अह तिरियउड्ढलोए विचिणादि सपज्जए ससंठाणे । - एत्थे व अणुगदाओ अणुपेहाओ वि विचिणादि ।।१७०९।।
'अह तिरिय उड्ढलोए' ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकान् । 'विचिणादि' विचारयति । कीदृग्भूतान् । 'सपज्जए' सपर्ययान संस्थानसहितान सपर्यायत्रिभवनसंस्थानविचारपरं संस्थानविचयाख्यं धर्मध्यानं । 'एत्थेव' अत्रैव । 'अणुगदाओ' अनुगताः । 'अणुपेक्खाओ वि' अनप्रक्षा अपि । 'विचिणादि' विचारयति । अनित्यत्वादिस्वभावविचारं करोति धर्मध्याने इति कथितं भवति ॥१७०८॥१७०९॥ कास्ता अनुप्रेक्षा इत्याशंकायामध्रुवादीननुप्रक्षान्निरूपयत्युत्तरप्रबन्धेन
अधुवमसरणमेगत्तमण्णसंसारलोयमसुइत्तं ।। आसवसंवरणिज्जर धम्म बोधिं च चिंतिज्ज ॥१७१०॥
जिनभगवान्के द्वारा कथित उपदेशके अनुसार करता है। अथवा जीवोंके शुभ और अशुभ कर्मविषयक अपायोंका विचार करता है। इसका अभिप्राय यह है कि जीव शुभ और अशुभ कर्मो से कैसे छूटे इस प्रकारका सतत चिन्तन अपायविचय है ॥१७०७॥
गा०-जीवोंके एक भव या अनेक भव सम्बन्धी पुण्यकर्म और पापकर्मके फलका तथा उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध और मोक्षका विचार करता है ॥१७०८।। .
टो०---कर्मो के फल, उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध तथा मोक्ष आदिका चिन्तन करना विपाकविचय धर्मध्यान है। क्रमसे कर्मों का अनुभवन होना उदय है और अक्रमसे कर्मों का फल देना उदोरणा है। अर्थात् जो कर्म उदयमें नहीं आ रहा है उसकी स्थितिको बलपूर्वक घटाकर कर्मका उदयमें लाना उदीरणा है। और एक कर्म प्रकृतिका अपनी सजातीय अन्य प्रकृतिरूप बदलना संक्रम है। इन सबका चिन्तन विपाकविचय धर्मध्यान है ॥१७०९।।
गा०-पर्याय अर्थात् भेद सहित तथा वेत्रासन, झल्लरी और मृदंगके समान आकार सहित कवलोक, अधोलोक और मध्यलोकका चिन्तन करना संस्थानविचय धर्मध्यान है। इसी संस्थानविचयमें सम्बद्ध अनुप्रेक्षाओंका भी विचार करता है अर्थात् धर्मध्यानमें संसारके अनित्यत्वादि स्वभावका विचार करता है ।।१७०९॥
आगे अध्रुव आदि अनुप्रेक्षाओंका कथन करते हैं
गा०-अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि इन बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन करना चाहिये ॥१७१०॥
१. अ० प्रती गाथेयं नास्ति । २. एतां श्रीविजयो नेच्छति ।
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