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विजयोदया टीका
७४५ 'इय' एवं । 'पण्णविज्जमाणो' प्रज्ञाप्यमानः । 'सो पुव्वं जावसंकिलेसादो' पूर्व जातसंक्लेशात् । 'विणियत्तंतो' विनिवर्त्यमानः । 'दुक्ख पस्सदि' दुःखं पश्यति । किमिव ? 'परदेहदुक्खवा' परशरीरगतमिव दुःखं ॥१६७३॥
रायादिमहड्डीयागमणपओगेण चा वि माणिस्स ।
माणजणणेण कवयं कायव्वं तस्स खवयस्स ॥१६७४।। 'रायाविमहड्ढीयागमणपओगेण' राजादिमहद्धिकागमनप्रयोगेण 'चावि माणिस्स' मानिनोऽपि । 'माणजणणेण' मानजननेन । 'कवयं कायव्व' कवचः कर्तव्यः । 'तस्स खवयस्स' तस्य क्षपकस्य । मम धीरतां द्रष्ट्र अमी महद्धिकाः समायाताः । अमीषां पुरस्ताद्यद्यपि प्राणा यान्ति यान्तु कामं तथापि स्वां मनस्वितां नाहं त्यजामीति मानधनो दुःखं सहते न कुरुते व्रतभङ्गम् ।।१६७४।।
इच्चेवमाइकवचं खणिदं उस्सग्गियं जिणमदम्मि ।
अववादियं च कवयं आगाढे होइ कादव्वं ॥१६७५।। 'इच्चेवमादिकवचं भणिदं' इत्येवमादिकः कवचः कथितो जिनमते । 'उस्सग्गिगो' औत्सगिकः सामान्यभतः । 'अववादिगं च कवचं कादग्वं' विशेषरूपोऽपि कवचः कर्तव्यो भवत्यवगा मरणे ॥१६७५।।
जह कवचेण अभिज्जेण कवचिओ रणमुहम्मि सत्तूर्ण ।
जायइ अलंघणिज्जो कम्मसमत्थो य जिणदि य ते ॥१६७६।। 'जह कवचेण' यथा कवचेन । 'अभिज्जेण' अभेद्येन । 'कवचिदों' सन्नद्धः । 'रणमुहे सत्तणमलंधिज्जो
गा०-इस प्रकार उपदेश द्वारा समझानेपर वह क्षपक पूर्वमें हुए संक्लेशरूप परिणामोंसे अपनेको हटाकर अपने दुःख इस प्रकार देखता है, मानो वह दुःख उसके शरीरमें नहीं है किन्तु किसी दूसरेके शरीरमें है ॥१६७३।।
___ गाo-टो०-महान् ऐश्वर्यशाली राजा आदिको उस क्षपकके पास लाकर भी उस अभिमानीको मानदान देकर उसका कवच ( रक्षाका उपाय) करना चाहिये। उन्हें देख वह विचारता है कि मेरी सहनशीलताको देखनेके लिये ये बडे-बडे ऐश्वर्यशाली आये हए हैं। इनके सामने भले ही मेरे प्राण जायें तो चले जायें। तथापि मैं अपनी मनस्विताको नहीं छोडूंगा। इस प्रकार वह मानप्रेमी दुःख सहता है किन्तु व्रतभंग नहीं करता ॥१६७४।।
गा०-इस प्रकार जिनमतमें कवचका औत्सर्गिक अर्थात् सामान्य स्वरूप कहा है। मृत्यु निकट होनेपर आपवादिक अर्थात् विशेषरूप भी कवच करना चाहिये ।।१६७५॥
विशेषार्थ-जिसका मरण अभी दूर है उसके लिये सामान्यरूपसे ऊपर कवचका कथन किया है। यहाँ निकट मरण वालेके लिये अपवादरूप विशेष कवचका कथन किया है । जिसका अभिप्राय यह है कि तत्काल उत्पन्न हुए ध्यानमें विघ्न डालने वाले भूख आदिके दुःखको दूर करनेके लिये यथायोग्य प्रयोग करना चाहिये। .
गा०-जैसे अभेद्य कवचके द्वारा सुरक्षित योद्धा युद्धभूमिमें शत्रुओंके वशमें नहीं आता। तथा शत्रुपर प्रहार करने में समर्थ होता है और इस प्रकार शत्रुओंको जीत लेता है ॥१६७६।।
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