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भगवती आराधना संगेहिं विचित्र रागद्वेषादिभावपरिग्रहैः सह । 'संथारे विहरंता वि' संस्तरे प्रवर्तमाना अपि । 'संकिलिट्ठा विवज्जंति' संक्लिष्टपरिणता विनश्यन्ति ॥१६६९।।
सल्लेहणापरिस्सममिमं कयं दुक्करं च सामण्णं ।
मा अप्पसोक्खहेउं तिलोगसारं वि णासेइ ॥१६७०।। 'सल्लेहणापरिस्सममिवं' शरीरसल्लेखनायां क्रियमाणायां अनशनादितपसा त्रिविधाहारत्यागेन, यावज्जीवं वा पानपरिहारेण जातं परिश्रममिदं । 'दुक्करं च कदं सामण्णं' दुष्करं कृतं च श्रामण्यं । चिरकालं त्रिलोकसारं अतिशयितस्वर्गापवर्गसुखदानात् । 'अप्पसुक्खहेदु' अल्पाहारसेवाजनितसुखनिमित्तं । 'मा विणसेहि' नैव विनाशय ॥१६७०॥
धीरपुरिसपण्णत्तं सप्पुरिसणि सेवियं उवणमित्ता ।
धण्णा णिरावयक्खा संथारगया णिसज्जंति ॥१६७१॥ 'धीरपुरिसपण्णत्तं' उपसर्गाणां परिषहाणां चोपनिपातैः अविचलधृतयो ये धीरास्तैरुपदिष्टं तत्सर्वं । 'सप्पुरिसणिसेवियं' सत्पुरुषनिषेवितं मार्ग ‘उवगमित्ता' आश्रित्य । 'धण्णा' धन्याः पुण्यवंतः । 'णिरावयक्खा' निरपेक्षाः परित्यक्तादानाः । 'संथारगया' संस्तरारुढाः । “णिसज्जंति' शेरते ॥१६७१॥
तम्हा कलेवरकुडी पव्वोढव्वत्ति णिम्ममो दुक्खं ।
कम्मफलमुवेक्खंतो विसहसु णिव्वेदणो चेव ॥१६७२।। 'तम्हा' तस्मात् । 'कलेवरकुडो' शरीरकुटी । 'पव्वोढम्वत्ति' परित्याज्येति मत्वा । 'णिम्ममो' शरीरे ममतारहितो । 'दुक्ख विसहसु' दुःखं विसहस्व । 'कम्मफलवेमुक्खंतो' कर्मफलमुपेक्षमाणो। 'णिग्वेदणो चेव' निवेदनमिव ॥१६७२॥
इय पण्णविज्जमाणो सो पव्वं जायसंकिलेसादो । विणियत्तंतो दुक्ख पस्सइ परदेहदुक्ख वा ॥१६७३।।
के कारण विनाशको प्राप्त होते हैं। अर्थात् प्रथम तो उनकी सल्लेखना ठीक रहती है। पीछे संक्लेश परिणाम होनेसे संथरेपर रहते हुए भी सल्लेखनासे भ्रष्ट हो जाते हैं ॥१६६९॥
गा०-टी. हे क्षपक ! अनशन आदि तपके द्वारा तथा तीन प्रकारके आहार और जीवन पर्यन्तके लिये पानका त्याग करके शरीरको कृश करनेमें तुमने जो परिश्रम किया है और यह अत्यन्त कठिन मुनिपद धारण किया है और इन सबसे तुम्हें जो स्वर्ग और मोक्षका सातिशय सुख मिलनेवाला है, इन सबको आहार सेवनसे होनेवाले थोड़ेसे सुखके लिये नष्ट मत करो ॥१६७०॥
गा०-उपसर्ग और परीषहोंके आनेपर भी जो विचलित नहीं होते उन धीर पुरुषोंके द्वारा कहे गये और श्रेष्ठ पुरुषोंके द्वारा सेवित इस मार्गको अपनाकर पुण्यशाली क्षपक, त्याग और ग्रहणसे निरपेक्ष होकर संस्तरपर आरूढ़ होकर विशुद्ध होते हैं ॥१६७१॥
गा०-अतः यह शरीररूपी कुटिया त्यागने योग्य है ऐसा मानकर शरीरसे ममत्त्व मत करो । तथा कर्मफलकी उपेक्षा करते हुए दुःखको इस प्रकार सहो मानो दुःख है ही नहीं ॥१६७२।।
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