________________
७४६
भगवती आराधना होबि' रणमुखे शत्रूणामलंध्यो भवति । 'कम्मसमत्थो य' प्रहरणादिक्रियासमर्थः । 'जिणदि य ते' जयति च तानरीन् ॥१६७६॥
एवं खवओ कवचेण कवचिओ तह परीसहरिऊणं ।
जायइ अलंघणिज्जो ज्झाणसमत्थो य जिणदि य ते ।।१६७७॥ ‘एवं खवगो' एवं क्षपकः कवचेनोपगृहीतः परीषहारिभिर्न लुप्यते, ध्यानसमर्थो जयति च तान्परीषहारीन् ।कवचुत्ति ॥१६७७॥
एवं अघियासेतो सम्म खवओ परीसहे एदे। ___ सव्वत्थ अपडिबद्धो उर्वदि सव्वत्थ समभावं ॥१६७८।।
'एवं अधियासेतो' एवं सहयानः सम्यक् परीषहानेतान् । सर्वत्राप्रतिबद्धः शरीरे, वसती, गणे, परिचारकेषु च सर्वत्रोपैति समचित्तताम् ॥१६७८॥ ।
सव्वेसु दव्वपज्जयविधीसु णिच्चं ममत्तिदो विजडो।
णिप्पणयदोसमोहो उवेदि सव्वत्थ समभावं ॥१६७९।। 'सव्वेसु' सर्वेषु द्रव्यपर्यायविकल्पेषु नित्यं परित्यक्तममतादोषः ममेदं सुखसाधनं मदीयं इति वा । 'णिप्पणयदोसमोहो' निस्नेहो, निर्दोषो, निर्मोहः सर्वत्र समतामुपैति ॥१६७९।।
संजोगविप्पओगेसु जहदि इट्टेसु वा अणिद्वेसु ।।
रदि अरदि उस्सुगत्तं हरिसं दीणत्तणं च तहा ।।१६८०॥ संयोगे रति, विप्रयोगे अरति, इष्ट वस्तुन्युत्कण्ठां, इष्टयोगे 'रदि' रति, हर्ष, इष्टविप्रयोगे अरति दीनतां । 'उस्सुगत्तं' उत्सुकतां च तथा 'जहति' जहाति क्षपकः कवचेनोपगृहीतः ॥१६८०॥
गा०-उसी प्रकार कवचसे सुरक्षित क्षपक परीषह आदिके वशमें नहीं आता। तथा ध्यान करने में समर्थ होता है और उन परीषहरूपी शत्रुओंको जीत लेता है ॥१६७७||
गा०-इस प्रकार इन तत्काल उपस्थित हुई परीषहोंको सम्यक् रूपसे सहन करता हुआ क्षपक सर्वत्र शरीर, वसति, संघ और परिचर्या करनेवालोंमें अप्रतिबद्ध होता है-ये मेरे हैं मैं इनका हूँ ऐसा संकल्प नहीं करता। तथा सर्वत्र जीवन मरण आदिमें समभावको-रागद्वषसे रहितताको प्राप्त होता है ।।१६७८॥
गा०-द्रव्य और पर्यायके समस्त भेदोंमें नित्य ममता दोषको त्याग स्नेह रहित, दोष रहित और मोहरहित होकर सर्वत्र समभावको प्राप्त होता है अर्थात् समस्त द्रव्यों और पर्यायोंमें 'ये मेरे सुखके साधन हैं' इस प्रकारका ममत्व भाव नहीं रखता। किन्तु सबमें समभाव रखता है। न किसीसे प्रीति करता है और न किसीसे द्वष करता है ॥१६७९।।
गा०-कवचसे उपकृत हुआ क्षपक संयोगमें रति, वियोगमें अरति, इष्ट वस्तुमें उत्कण्ठा, इष्ट वस्तुके संयोगमें रति तथा हर्ष और इष्ट वस्तुके वियोगमें अरति तथा दीनता नहीं करता॥१६८०॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org