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विजयोदया टीका
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मित्ते सुयणादीसु य सिस्से साधम्मिए कुले चावि ।
रागं वा दोसं वा पुव्वं जायपि सो जहइ ॥१६८१।। 'मित्त सुयणादीसु य' मित्रेषु बन्धुषु वा। शिष्येषु च सधर्मणि कुले वा पूर्व जातं रागद्वेषं वासी जहाति ॥१६८१॥
भोगेसु देवमाणुस्सगेसु ण करेइ पत्थणं खवओ ।
मग्गो विराधणाए भणिओ विसयाभिलासोत्ति ॥१६८२॥ 'भोगेसु देवमाणुस्सगेसु' देवमानवगोचरभोगप्रार्थनां न करोति क्षपको व्यावर्णितकवचोपगृहीतः । विषयाभिलाषो मुक्तिमार्गविराधनाया मूलमिति ज्ञात्वा ॥१६८२॥
इढेसु अणिद्वेसु य सदफरिसरसरूवगंधेसु । इहपरलोए जीविदमरणे माणावमाणे च ॥१६८३।। सव्वत्थ णिन्विसेसो होदि तदो रागरोसरहिंदप्पा ।
खवयस्स रागदोसा हु उत्तमढें विणासंति ।।१६८४॥ स्पष्टं उत्तरगाथाद्वयं। ।१६८३।।१६८४॥
विशेषार्थ-इष्ट वस्तुके मिलनेपर या अनिष्ट वस्तुके बिछुड़नेपर चित्तमें प्रसन्नता होना, अनिष्टका संयोग अथवा इष्टका वियोग होनेपर अरति अर्थात् चित्तका दुःखी होना, इष्ट वस्तुमें उत्कण्ठा होना–यदि मुझे अमुक वस्तु मिल जाये तो अच्छा हो इस प्रकार हृदयमें उत्कण्ठा होना, हर्ष अर्थात् इष्टका संयोग होनेपर रोमांच, मुखकी प्रसन्नता आदिसे आनन्द व्यक्त होना, तथा इष्टका वियोग होनेपर मुखकी विरूपतासे विषाद व्यक्त होना, ये सब कवचसे उपगृहीत क्षपक छोड़ देता है।
__ गा०-अथवा कवचसे उपगृहीत वह क्षपक मित्रोंमें, बन्धुबान्धवोंमें, शिष्योंमें साधर्मी जनोंमें और कुलमें, पूर्व में उत्पन्न हुए रागद्वषको छोड़ देता है अर्थात् समाधि स्वीकार करनेसे पर्वमें या दीक्षा ग्रहण करनेसे पर्व में जो रागदेब उत्पन्न आ है उसे दर कर आगे भी रागद्वष नहीं करता ॥१६८१॥
गा०–तथा ऊपर कहे गये कवचसे उपग्रहीत क्षपक यह जानकर कि विषयोंकी अभिलाषा मोक्षमार्गकी विराधनाका मूल है, देव और मनुष्य सम्बन्धी भोगोंकी प्रार्थना नहीं करता ॥१६८२।।
___ गा०-टी०--कवचसे उपगृहीत होनेसे क्षपक इष्ट अनिष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धमें, • इस लोक और परलोकमें, जीवन और मरणमें, मान और अपमानमें सर्वत्र इष्ट अनिष्ट विकल्पसे - मुक्त और रागद्वेषसे रहित होता है। क्योंकि क्षपकके रागद्वेष उत्तमार्थ अर्थात् रत्नत्रय, सम्यक् ध्यान और समाधिमरणको नष्ट कर देते हैं ॥१६८३-१६८४||
१. विराधेति मु०। ९४
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